एक दीपक जलाकर
संभव नहीं एक दीपक बहाकर, बहती नदी की फिजा दिख सके
फिर जो दीपक जलाते अमा के प्रहर वो प्रबल सूर्य की अर्चना है
चन्द्रमा रश्मि का एक कण मिल सके, ऐसे सबब के लिए वंदना है
आज चंहुओर फैली अमावस ही है, सारे जग में घनी आफतें पल रहीं
खुद ही जन्मी है ऐसी दुखद हालतें, जो हर एक को नित्य प्रति छल रहीं
फ़जूली अफवाहों के झूंठे झोंके पकड़, अलगाव की आँधिया चल रहीं
धर्म संकट में हैं प्राण सबके यहाँ,युक्तियाँ कोई हल की नहीं मिल रहीं
पर ओढ़कर नैराश्य यदि बैठे रहे चुपचाप, तो एक भारी भूल होगी
चित्त की संकीर्णता होगी सघन, सद्भाव कीआशा सदा को दूर होगी
आमजन रूठे हुए जो स्वप्न उनके समझकर, इक बार फिर होंगे सजाने
ले साथ में, सम्वेदना की नींव पर विश्वास के अंकुर नये होंगे उगाने
श्रीप्रकाश शुक्ल
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