टूटी वीणा के तार
बार एक फिर से झंकृत होंगे
बज रहे बेसुरे ढोल आज
गूंजे चहुं दिश कर्कस आवाज
संवेदना हुयी है तार तार
देहशत गर्दी की हद है पार
क्या नैतिक मूल्यों के अंकुर
बार एक फिर से निसृत होंगे
क्या टूटी वीणी के तार
बार एक फिर से झंकृत होंगे
सिर पर चढ बोले अहंकार
सार्थक सम्मति का तिरस्कार
बिन कारण करते जो अनिष्ठ
दे रहे स्वयं को घोर कष्ट
क्या तामसी प्रकृति के भाव
बार एक फिर से विस्मृत होंगे
क्या टूटी वीणा के तार
बार एक फिर से झंकृत होंगे
ये धरा प्रकृति की अनुपम रचना
जहाँ सहज सफल हो, हर सपना
मिलजुल कर हो जीवन यापन
पनपे कण कण में अपनापन
क्या प्रकृति नटी की सुखद गोद
में, आश्रय ले सब हर्षित होंगे
क्या टूटी वीणा के तार
बार एक फिर से झंकृत होंगे
श्रीप्रकाश शुक्ल
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