Thursday 7 April 2016

इस पनघट पर तो

सुधियों में आगये अचानक, वो छोटे  से बिखरे गाँव 
जहाँ बने देवालय नदियां सब के सब थे सुख के ठाँव  
लगभग ही हर एक गाँव में सदा रहा इक ऐसा स्थल 
जिसको पनघट कहते थे, सब प्राणी पाते मीठा जल 

इस पनघट पर तो सदियों से, आवाज एक ही गूंजी थी  
साफ़ सलिल सा निर्मल मन, हर पनिहारिन की पूँजी थी 
ले खाली गागर,प्रेम का सागर पनघट पर गोरी आती थी 
चूड़ी की छन,करधन की खनखन प्रीति सुधा फैलाती थी 
 
माथे पर बिंदिया, कटि पर मटकी, पायल शोभा पाती थी    
सारा परिदृश्य झूम उठता, चंहु ओर ख़ुशी छा जाती  थी 
नव विवाहिता बधु परिचय पनघट ही प्रस्फुट करता था 
कैसे कोई सम्बोधित होगा, रिश्तों में गरिमा भरता था 

राहगीर कोई पनघट की एक झलक यदि पा जाता था 
बिना प्यास ही राह छोड़ सीधा पनघट पर आ जाता था 
सदियों से लिखता आया पनघट, ऐसी इक प्रेम कहानी  
दो घूँट प्रीति रस जब पी पंथी ने , मर मिटने की ठानी 

कुए लुप्त हैं,बिसरा पनघट मिट गयी विरासत सदियों की 
भावना रहित है नया वर्ग, याद कहाँ  सुगठित विधियों की  
कुछ  परम्पराएँ  ऐसी   थीं,  हर जीवन में सुख भरतीं थी 
अति आवश्यक, इन्हें सहेजें ,ये दूर विषमतायें  करती थीं 

श्रीप्रकाश शुक्ल  

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