इस पनघट पर तो
पर ऐसा पनघट न मिला दो घूँट प्रीति रस दे पाता जो
ऐसा लगता था सब के सब भूख प्यास से व्याकुल हैं
धक्का मुक्की कर आगे बढ़ जाने के प्रयास में रत थे
ज्ञात हुआ मदिरा की बोतल पा जाने को आकुल हैं
ये भी इक पनघट ही था जो ऐसी दवा पिलाता है
मन की सारी व्यथा सिमट जाती है इस पनघट पर तो
आगे इक देवालय के प्रांगण में आग जल रही थी
गढ़ा हुआ था वहीँ पार्श्व में भोलेशंकर का त्रिशूल
घूम रही थी चिलम वृत्त में एक एक चुस्की देकर
झूम रहे अवधूत सभी थे जीवन की कुंठाएं भूल
बम भोले का नाद कर रहे थे तपसी कुछ रुक रुक कर
कहते थे अनन्य सुख है ये, संभव नहीं कहीं भी जो
पनघट लुप्त होगये लेकिन, पीने के जमघट अनेक हैं
कोई पीता शुद्ध वारुणी, अभया कोई, खुद के विवेक हैं
मिलना जुलना इनमें भी पर बात नहीं जो पनघट में थी
पनघट इक ऐसा स्थल था जहाँ सौम्यता घटघट में थी
काश पुनः पनघट बन पाएं, सरिता कुआ सरोवर तट पर
बिसरी हुयी भव्यता पाएं, बिन कारण खो बैठे हम जो
श्रीप्रकाश शुक्ल
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