Wednesday 13 January 2016

हर चेहरा खो जाता है

राजनीति का खेल अजब है, रोज बदलने पड़ते चेहरे
बार बार प्रतिरूपण में, असली हर चेहरा खो जाता है 
सच्चे जीवन के मूल्य बिरासत में जो हमने पाये थे
धीरे धीरे रिसने पर मन का मैला रंग गहरा हो जाता है 

जब अभिन्न साथी कोई अपना, आँख चुराने लगता है 
इक पैनी कसक ह्रदय में उठती  बीज दर्द के बो जाता है
संवेदनशील व्यथित मानव मन ढूढ़ नहीं पाता कोई हल 
उर में उद्वेलित भाव पुंज, अधरों पर आकर  सो जाता है 

जो स्वदेश की रक्षा में, हंसकर प्राण न्यौछावर करते   
उनके स्वजनों का दर्द, सभी का ह्रदय भिगो ही जाता है 
पर जब उसी शहादत पर, होती  है कुत्सित राजनीति   
तो फिर रोना आता है और शीश शर्म से झुक जाता है 

श्रीप्रकाश शुक्ल 

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