किसकी प्यास बुझाए बादल
इस जगती के कण कण में पलती प्यास सुलगती सी
किसकी प्यास बुझाए बादल खुद की प्यास अनबुती सी
रूठा पड़ा समंदर कब से, उछल न डाली गल बाहें
आँचल सारा सूख गया है, नित दुखती पीर झुलसती सी
प्यासे खेत, सरोवर प्यासे, सारी धरती मरुथल है
मराठवाड़ की पावन नदियाँ दिखतीं आज बिलखती सी
भूखे, नंगे बच्चे जिसके, तोड़ रहे हों नित अपना दम
कैसे जिन्दा रख सकतीं हैं आश्वस्तियाँ उसे अवितत्थी सी
कुछ अर्थ नहीं स्मारक का "श्री" बुलेट ट्रेन भी रुक सकती है
दो रोटी उन रूहों को दो , जो अब तक रहीं तरसतीं सी
श्रीप्रकाश शुक्ल
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