Friday 30 January 2015

धरा पे लिख दें, हवा से कह दें 

कितने वर्षों से हम खुद को छलते रहे,  
मरुथल में पानी का पाले भरम 
ज़मीनी हक़ीक़त से अनजान थे जो,  
सौंप उनको चमन, भूले अपना करम 
दिल पे पत्थर रखे, अब तलक जो सहा,   
नयी पीढ़ियां अब न हरगिज़ सहेंगीं 
धरा पे लिख दें, हवा से कह दें 
बदलियाँ छट चुकीं , रश्मियाँ अब बहेंगीं 

जयद्रथ अनाचार का मद में डूबा, 
ढा रहा था कहर हम रहे हाथ बांधे 
अभी शेष दिन है न डूबा है सूरज,  
खड़े पार्थ अनगिन हैं गांडीव साधे 
चक्रव्यहू में फँसी खेत आई व्यवस्था, 
दुःख भरी ये कहानी जमातें कहेंगी  
धरा पे लिख दें, हवा से कह दें, 
हौंसले जाग उट्ठे,  न स्याह रातें रहेंगीं   

जन्म से ही पले सद्भाव की गोद में हम, 
न सोचा  कभी  कौन  छोटा  बड़ा है  
गोप पुत्रों के संग खेलते  द्वारकाधीश, 
इतिहास इन कथाओं से भरा पड़ा है 
प्रतिज्ञा है देवव्रत की भारत की भू पर, 
बातियाँ  स्नेह की, हर  घर जलेंगीं 
धरा पे लिख दें , हवा से कह दें,
भले सूरज टले ,  न ये राहें टलेंगीं 

श्रीप्रकाश शुक्ल 

 
धरा पे लिख दें, हवा से कह दें 

है आज भारत भूमि  पर आंधी  चली बदलाव की 
स्वच्छ ऊर्जा,  स्वच्छ पानी, नव कथा हर चाव की  
नीतियाँ  घूंघट  उठाये, प्रतिबद्धताएं  सत्यता की 
धरा पे लिख दें हवा से कह दें ये डगर होगी भद्रता की    

आवाज़ आती  मरुथलों से मत कहो बीरान हैं  हम   
आँचल छुपाये खनिज ढेरों  देश की अब शान हैं हम 
कल्लोल कर नदियाँ सुनातीं नित नयी सरगम धुनें 
नौकाएं निर्मल सलिल में  निर्बाध सुख  सपने  बुनें 

चलने लगीं  ऐसी  हवायें, जो  वारिदों के पंख काटें  
रवि  रश्मियों  में  रोष  है, जो  तिमिर  के अंग छांटें   
नैराश्य ओढ़े सो गये जो,  छुट गया आधार जिनका  
धरा पे लिख दें हवा से कह दें अब जगेगा भाग्य उनका

श्रीप्रकाश शुक्ल 

Wednesday 21 January 2015

केसर घोल रहा है सूरज, अभिनन्दन 

नीले नभ में छटी बदलियाँ, मिहिर रश्मियाँ खिल आयीं 
अम्बर की  परिमिति नापने, खग दल ने पाखें फैलायीं  
तट पर बाँध सुरक्षित नौका, जो  सोये थे हारे, मन मारे   
लहरों का सीना चीर बढ़े वो बीच भंवर में, छोड़ किनारे 

भू पर सिंहनाद गूंजा, नाच उठा सारा जन गन 
केसर घोल रहा है सूरज, अभिनन्दन

लोक तंत्र की दीवारों को खोखला कर रही थी जो दीमक 
उसको आमूल नष्ट करने को रचे गए अनुकूल नियामक
पर कौओं की काँव काँव ने होने न दिया सार्थक चिन्तन 
अध्यादेश का पर्वत लेकर आ पहुंचा तब  मारुति नंदन 

हड़बड़ी मची राक्षस दल में  इसका अब क्या निराकरन  ? 
केसर घोल रहा है सूरज, अभिनन्दन

राज प्रासादों में बैठे जो आंक कर रहे थे राज्य व्यवस्था 
असलियत जमीनी से जिनका रहा न कोई कभी वास्ता 
ऐसे पराश्रयी  दक्षों को सम्मान पूर्वक  विदा कर दिया 
नीती आयोग गठन कर के  भारत रूपांतर शुरू कर दिया  

जीवन के शाश्वत मूल्यों का  हो न सकेगा अब विघटन 
केसर घोल रहा है सूरज, अभिनन्दन

जन विकास के हेतु बन रहीं नित प्रति नयी योजनाएं  
जनता में विश्वास भर रहा, मिट रही अमंगल  शंकाएं 
अब वो दिन ज्यादह दूर नहीं जब चमकेगा सम्पूर्ण चमन 
ऐसी  रचना के सूत्रधार को आओ हम सब मिल करें नमन 
केसर घोल रहा है सूरज, अभिनन्दन

श्रीप्रकाश शुक्ल 

केसर घोल रहा है सूरज, अभिनन्दन

शासन की अनृत नीतियों 
से  होता रहा त्रसित जन गन 
ऊँच नीच का भेद न छूटा  असहायों  का  हुआ   दमन  
गणतंत्र  नींद से जागा अब,  सुनकर कारुण्य भरा क्रंदन 
अच्छे दिन लाने की खातिर, होने लगा सार्थक चिंतन 
द्वार प्यार के खोल रहा है,  हर्षित मन 
   
केसर घोल रहा है सूरज, अभिनन्दन

दुविधा के दिन मिटे, हो रहे जन हित निर्णय आनन-फानन  
ऊर्जा उछाल ले बह निकलेगी, होगा ज्योतित सम्पूर्ण चमन 
जगती पर फैलेगी हरीतिमा, मुरझा न सकेगा कोई भी तृण 
स्वच्छ धरा पर फिर डोलेगी ,सुरभित शीतल मलय पवन 
भाषा विपन्न की बोल रहा है,एक अकिंचन 
केसर घोल रहा है सूरज, अभिनन्दन

नदियों के निर्मल जल में प्रतिबिंबित हो जब चन्द्र किरण 
आलोक अमित फैलाएगी , हर गाँव शहर  होगा वृन्दावन 
नाचेंगे कृष्ण गोपियाँ मिल ,श्रद्धा  विश्वास भरा हर मन 
इस प्रयास में अर्पित हैं जो , आओ उनको हम करें नमन 
मिलकर ही  तोड़े जाते हैं, सदियीं के बंधन 
केसर घोल रहा है सूरज, अभिनन्दन

श्रीप्रकाश शुक्ल 

जीवन के नवल वर्ष 

अगणित आशाएं लिए हुए हैं, ओ जीवन के नवल वर्ष 
तुम हमको निराश मत करना

अर्थ परिग्रह के लालच में  जीवन प्राण विहीन हो गया  
भौतिक विकास का भोगी बन मानव एक मशीन होगया  
पग तले पड़ी कुचली नैतिकता, शाश्वत मूल्य कराह रहे  
मानवता  का जीवन दूभर, अपचारी पाते   जो चाह रहे  

हम ठाने बैठे हैं जन जन में लाएंगे, इक नया हर्ष  
तुम पथ मेरा अवरुद्ध न करना 
ओ जीवन के नवल वर्ष,  तुम हमको निराश मत करना

देश पड़ोसी कैसे भी हों संभव नहीं बदलना उनको 
पर संभाव्य दोस्ती है, जो समझें अपने जैसा उनको 
जो बीत गयी  सो बात गयी अब उसका क्या रोना धोना 
जब  मिल कर रह सकते है, तो अमन चैन फिर क्यों खोना 

अब से सब मसलों का होगा एक मात्र रस्ता विमर्श 
तुम मेरा विश्वास न हरना 
ओ जीवन के नवल वर्ष,  तुम हमको निराश मत करना

हम  तुम  संतति एक बंश की, नाड़ी  एक धड़कती है 
जब तुमको संकट घेरे तो मेरी  भी  आँख फडकती है  
जब भी क्रूर नियति के हाथों  देश पडोसी  हुआ अनुतपत 
हम भी  निर्लिप्त नहीं रह पाये ह्रदय हमारा  हुआ व्यथित   

भूल कदापि नहीं होगी अब मिल कर लाएंगे जीवनोत्कर्ष  
तुम अंतस में करुण भावना गढ़ना  
ओ जीवन के नवल वर्ष,  तुम हमको निराश मत करना

श्रीप्रकाश शुक्ल 

सृजनकार का वन्दन 

तू  है रचनाकार  जगत का  तू  ही  है पालन करता  
निर्विकार अरु निराकार तू  मात पिता तू  ही  भरता  
कहते  हैं  तुझे  समी, आदिल,  राज़िक़, ज्ञाता, बसीर 
ये खूबियाँ सभी तेरी हैं तू हर आदम का जमीर 
(समी : सुननेवाला, आदिल: न्याय करनेवाला, राज़िक़: रोज़ी देनेवाला,बसीर : देखनेवाला )

सबका मालिक एक तू ही है, कोई समझ न पाता  
तेरी कृपा दृष्टि पाकर सब दुःख छूमंतर हो जाता  
तू ही मार्ग दिखाता सच्चा, तू ही विधि का निर्माता  
ईशदूतत्व रचे तूने, जिनसे इन्सान हिदायत पाता 

सद निष्ठा से, उपकृत होकर, ऐसे सृजनकार का वन्दन  
केवल वांछित नहीं, जरूरी है, चाहो जो नैसर्गिक बंधन 
विश्वास आस्था औषधि हैं, जो आचरण संतुलित करते 
आचरण संतुलित हो तो फिर सुखिया सारे दिवस गुजरते   
 
श्रीप्रकाश शुक्ल 

ईशदूतत्व: ईश्वर ने हर एक के लिए कुछ सिद्धांत व नियम बनाए। इन्सान ईश्वर की अनुपम सृष्टि है, इसलिए उनकी हिदायत व रहनुमाई के लिए एक प्रणाली बनाई, जिसे ईशदूतत्व कहते हैं।

जिंदगी की वाटिका में 

जिंदगी जीने चला था सिर्फ़ सुख की चाह लेकर 
यह कभी सोचा नहीं हर गुल को कांटे घेरते हैं 
जिंदगी होती नही है पुष्प सज्जित सेज केवल 
हर लम्हे को नियति के अंकुश अवसि ही फेरते हैं 

कितने झंझावात आये, जिंदगी की वाटिका में 
भयभीत हो आश्रय हिले, कांपे, मगर टूटे नहीं 
आस्था की जड़ें भी कँपकपायीं, बार कितनी 
पर संकल्प जो थे साध रक्खे वो कभी छूटे नहीं  

मानते अनुराग ही है, सुख दुःख का जन्म दाता,
पर मात्र देता कष्ट ही, अनुराग जो भौतिक रहा 
जो  समर्पण कर  सका  पूरा, जगत के ईश को 
हर बृक्ष उसका जिंदगी के बाग़ में  पुष्पित रहा  

जिंदगी उसके  लिए इक भार होकर रह गयी है  
सीखा नहीं कुछ पेड़ से, जो खड़ा बगिया में रहा 
रात दिन जिसने लुटाये फूल पत्ती फल खुले दिल 
अंत में हो खुद समर्पित  कर्म  निज करता  रहा 

अब भी समय है चेत जा जिंदगी की कर समीक्षा 
नूर की किरणें तुम्हारी कर रहीं  प्रतिपल प्रतीक्षा 
दूसरों के प्रति सदाशयता का नाता जोड़ कर चल 
भटके हुये हैं डगर जो,उनका पथ तू मोड़ कर चल  

श्रीप्रकाश शुक्ल