Tuesday 28 July 2015

विश्वास बहुत है

यदि जीवन के झंझावातों से, हो त्रसित मनोबल  लगे टूटने 
मन  की  क्यारी में  कुभाव के अंकुर  अनगिन   लगें  फूटने 
यदि ऊपर उठती हुयी सफलताओं की चंग अचानक नीचे आये   
तो  रखना  उस पर विश्वास बहुत है जो जीवन की नाव चलाये  

वो कहता, मैं नहीं किसी के पाप पुण्य का लेखा जोखा रखता हूँ 
और न ही उस पर आधारित, सुख -दुःख  का वितरण करता हूँ   
पर निश्चय हूँ  व्याप्त जगत में , हूँ हर अवयव  में हर  कण में 
मैं हूँ, इतना विश्वास बहुत है, जो धीरज  दे कुसमय के क्षण में 


मैं हूँ प्रकृति, रचयिता जग का, पालक जन जन का, संहारक  हूँ 
मैं हूँ संचालक सकल सृष्टि का,  सर्व शक्तिमय हित  कारक हूँ  
जिनको  मुझ पर  विश्वास  बहुत है, जो  मुझको  पास बुलाते हैं 
मैं भी उन्हें  ढूंढता  प्रतिपल अवकंपित मुझको वो कर जाते हैं 

 श्रीप्रकाश शुक्ल -
किस इंतज़ार में

किस इंतज़ार में बैठे हैं हम, क्या अच्छे दिन आएंगे 
 क्या रोटी कपडा और मकाँ  सब के सब पा जाएंगे 

मुमकिन नहीं सभी पा जाएँ क्योंकि पंगत बहुत बड़ी है 
पर बिना करे कोशिश अच्छे दिन जुमले में रह जायेगे 

अतिशय अवघट होता है, सही राह पर सब को लाना  
क्या राज धर्म की रक्षा के हित अपने हित बिसरायेंगे                                

नीतियाँ सही हों,काम सही हो,जनता को पैगाम सही हो 
स्वार्थ त्याग सब जन हित सोचें तब ही कुछ कर पाएंगे  

लोक तंत्र के ढाँचे में "श्री "भूमिका विपक्ष की अवसित है 
पर बिना  आँच  के कूदेंगे यदि, फिर तो  दुत्कारे जाएंगे 

श्रीप्रकाश शुक्ल 

Sunday 19 July 2015

सन्दर्भ : मनीपुर में १८ सेना के जवान मारे जाने के सन्दर्भ में यह रचना सभी सैनिकों को सम्बोधित है


अरे उठो वीरो क्यों चुप हो 

नहीं कुछ फर्क है दिखता हमें  भीरुता और शराफत में
मतलब क्या चुप हो बैठें हम नादानी और  हिमाकत में 
क्षमा उसी को शोभा देती जो सच में ज़हर उगल सकता है 
बदला निपात का हो  विघात, तो माहौल  बदल सकता है  

अरे उठो वीरो क्यों चुप हो किसकी तुम्हें प्रतीक्षा अब है 
अठारह सह्स्र जब  चीख उठें, शूरों की  सार्थकता तब है 
घर घर में घुस ढूढ़ निकालो जिसने ऐसा अंजाम  दिया  
सारे जग को आज बता दो, किसने माँ  का  दूध पिया  

नहीं तनिक भी आवश्यक हम जग के आगे रोना रोयें 
प्रत्युत्तर ऐसा सटीक हो सदियों  तक हम  चैन से सोयें  
यदि देश पडोसी कोई भी दे रहा समर्थन इस जघन्य को 
तो ऐसा पाठ पढ़ाओ उसको फिर न छेड़े किसी अन्य को 

याद करो चाडक्य नीति जो कुश की धृष्टता मिटाने को 
देती सलाह संकल्पित हो मौलिक आलंबन निबटाने को 
आज ज़रूरी है हम इनकी अति विस्तारित जड़ें मिटायें 
ऐसे दुः साहस पूर्ण कृत्य जिस से अपना सर न उठायें  
 
श्रीप्रकाश शुक्ल 
बोस्टन 
५ जून २०१५ 
विश्वास बहुत है

जीवन में अवसाद अनेकों, प्रायः आएंगे धैर्य परीक्षा को  
पर डटकर टक्कर लेने को केवल मन का विश्वास बहुत है 
मन की हार हार होती है, मंजिल  अविजेय नहीं कोई 
ह्रदय और मन के प्रांगण की छोटी सी अभिलाष बहुत है 

जीवन पथ पर अवरोध अनेकों प्रकृति रूप स्वाभाविक हैं 
पर उनसे उपजी खीज निराशा और हताशा अमिट नहीं 
विश्वास संजोये अपने ऊपर रख पाओ अनवरत  अगर 
श्रम साहस पुरषार्थ साथ ले गंतव्य पंहुचना  कठिन नहीं 

विश्वास बहुत है सच है पर केवल कोरा विश्वास नहीं 
बिना पंख नभ में उड़ने का स्वप्न देखना घातक है 
तोलो अपनी सामर्थ, समेटो अनुभव, साधन सारे 
फिर ले लो छलांग जितनी संभव जितनी अंदर ताकत है  

श्रीप्रकाश शुक्ल 
लिखे श्वेत पृष्ठों के ऊपर,

जनगण  के जो संरक्षक थे, सत पथ के थे रखवाले 
लिखे श्वेत पृष्ठों के ऊपर, नए कथानक इतने काले 
चकित रह गया देश देख, कितना कोई गिर सकता है 
साफ सजी तस्वीर कोई,  कैसे  धूमिल  कर सकता है 

अर्थशास्त्र में अतुल निपुणता, सारे जग ने जिनकी मानी  
व्यवहार सौम्यता  में  जिनका, भारत में दिखा न  सांनी 
केवल पद की लोलुपता में, अनुचित कार्यों से आँख फेर ली  
जब तक तटस्थ हूँ दोषी मैं क्यों, ऐसी क्यों धारणा घेर ली  

इतिबृत्त साक्षी है पहले भी ऐसा, एक कथानक रचा गया था  
धर्मराज ने जान बूझ, अनविज्ञ बने, सच का साथ तजा  था   
जनता के न्यायलय ने तब भी उनको  दोषी ही ठहराया था 
स्वर्णिम छवि की न्याय मूर्ति में असित निशान लगाया था 

ऐसी स्थिति में यही अपेक्षित अपने कृत्यों को स्वयं आंक लो 
 शोहरत की चाह न हो हावी  अन्तर्मन में इक बार झांक लो 
भूल अगर ऐसी   है   जिसका ,  कोई  शोधन प्राप्य नहीं  
तो  उचित यही है, स्वीकारो, भूला  होता  है त्याज्य नहीं 

श्रीप्रकाश शुक्ल 

मन की तराजू पर तौलो

उद्बोधित हर भाव ह्रदय का मन की तराजू पर तौलो
कोई सु मन न हो तापित निश्चित कर अधरों को खोलो

चिकनी चुपड़ी बातों से संभव है विश्वास जीत लो
पर सच्ची जीत चाहते हो तो मन का मैल खखोलो  


कितनी मालाएं पहन चुके हो कितनी दूरी पार कर चुके
पर यात्रा सफल बनानी है तो साथ विपन्नों के हो लो

सर्व शक्तियां पास तुम्हारे क्यों रोते हो बंधु अकारण
प्रभु पर कर विश्वास, भार जीवन का हंस हंस ढ़ो लो

सत्य अगर कड़वा है तो औषधि समझ घटाघट पी लो
तनिक यातना अच्छी है, तुलना में जीवन भर रो लो

अंतस में बैठा  साथी  "श्री " प्रतिपल राह दिखाता है
यदि वांछित मंजिल पानी है, निर्देशित पथ से मत डोलो

श्रीप्रकाश शुक्ल 
देख पाओगे कभी

जिस समय विश्वास भर, मेहनत से जूझोगे कभी  
दुस्वारियों से जगत की , न कष्ट पाओगे कभी 
रहमत बरसती खुदा की, रहती है कितनी शख्स पर 
जब तक है परदा आँख पर, न देख पाओगे कभी  
आवरण यदि अहम का, ओढ़े रहोगे हर समय 
निर्वस्त्र हो तुम किस तरह, न समझ पाओगे कभी  
जब तलक ये ख़याल घर है, मेरे सिवा सब गलत हैं 
तब तलक है कौन सच्चा, न परख पाओगे कभी 
सब उलझनों की नींव  है, मात्र "श्री " मन का अँधेरा 
होगा न ऐसा बोध जब तक, न  सुलझ पाओगे कभी 
श्रीप्रकाश शुक्ल 

कल जिसने घूंघट खोला था,

गले में  मंगल  सूत्र  डाल , हाथों  में चूड़ा  अरुणिम पहने 
वो  आई  थी  स्वप्न  मधुर ले  साथ  सुसंगतता से  रहने 
अस्मिता ध्वनित थी अंतस में, संबल अपनों का संचित था 
स्नेह परजनों का पाने का, विश्वास ह्रदय में संकल्पित था 

कल  जिसने घूंघट खोला  थाआज  पूर्ण  दायित्व सँभाले 
विधिवत निपटा रही काम सब बिना शिकन चेहरे पर डाले 
सीमित नहीं  यहीं  तक  है, वो  धता  बताती रूढ़ि प्रथा को 
अपने स्व का आभास कराने  चिंतित है वो  नयी कथा को   

है  सुलग  रही  जो  तृषा नारि के अंतर्मुखी अचेतन मन में 
जीवित हो, कब  भर  पायेगी, पल  दुर्लभ  मुरझाये  तन में 
निर्जीव  गठरियों  सी  ख़ामोशी   कब तक वो मिटा सकेगी  
नारी स्वर मुखरित होगा  कब  भार तुंग  सम  हटा  सकेगी 

ये  सब  चिंताएं नारी  को  झकझोर, कह  रहीं  आगे  बढ़ 
लक्ष्मण रेखा  तोड़, छोड़ अबलापन, गति के पथ पर  चढ़  
तब घूँघट में से झाँकेगी, स्वतंत्र प्रकृति जो  सत्य आप में  
नारीत्व सार्थकता पायेगा दंपति सुख विकसेगा मिलाप में  

श्रीप्रकाश शुक्ल 
इस होली परआज नए कुछ रंग 

भदरंग निमिष जीते जीते, जीवन हुआ अपंग 
आओ खेलें इस होली परआज नए कुछ रंग 

वो जीवन  भी क्या जीवन है जिसमें हर्षोल्लास नहीं 
वो मौसम भी क्या मौसम है जिसमें हो मधुमास नहीं
प्रकृति नटी की चूनर में  नित  रचती सतरंगी  क्यारी 
भारत ऐसी भूमि कि जिसमें त्योहारों की छवि न्यारी 

आओ अब फिर से अपनायें भरत मिलन के चर्चित ढंग 
दिल में  हो भरा प्रेम सागर, स्वस्ति भावनाएं हों संग 
 
जब से  वन्दन की चाहत का मन में प्रादुर्भाव हुआ है 
तब से कोमल भावों ने जन मानस को कम ही छुआ है  
रहे निभाते जग की रीतें, पर तार ह्रदय के जुड़ न पाये  
रस रंग रहे जीवन के फीके तम प्रलोभ के मन को भाये  

आओ निरंहकारिता के रंग डूबें,कर पूर्वाग्रह भंग    
आओ खेलें इस होली परआज नए कुछ रंग 

श्रीप्रकाश शुक्ल 
अपने अपने शून्य

रवि  चन्द्र पृथ्वी आदि  गृह, रूप जो  करते निरूपण
ल बिंदु, तारक, ओस  के हैं  रूप जिसका अनुकरण
जो शून्य, अनंत, अनादि है, विविधकार जिसका रूप हैं 
हर कण में  समाया सृष्टि के वो आत्म,ब्रह्मस्वरुप  है 

जो अपने अपने शून्य में खो, साधना पथ में बिचरते  
ध्यान केंद्रित कर श्वसन पर भाव गति निर्बाध करते    
शांति  सागर सी  हिलोरें  मन में आ कर पौढ़  जातीं  
भौतिक  जगत से दूर कर, ले  पूर्णता की  ओर जातीं 

शून्य उद्गम ज्योति का, उर में समाये तिमिर काला 
शून्य सृष्टि का सृजक, शून्य घातक ,शून्य रखवाला   
 धन्य  वो सार्थक विचारक  जो  शून्य लाये खोजकर 
विज्ञान के इक सूत्र में बाँधा जगत  विषमतायें तोड़कर 

 श्रीप्रकाश शुक्ल 
अपने अपने शून्य

जब अपने अपने शून्य बेचने कवि स्वयंभु आवाज़ लगाते
संवेदना रहित इस नगरी में ग्राहक अनगिन खुद आजाते  
ग्राहक भी प्रतिभावान मनीषी, देखे खरीदते  छिछलापन  
रख दूर ताक पर सारा विवेक मूल्यों  का करते दिखे हनन 

स्थापित हैं लिख चुके बहुत अब नहीं सोचना क्या लिखना   
चिंता  नहीं समाज  क्या चाहे अपनी ढपली राग  है अपना   
पर  मत  भूलो  जनता  जागृत  है अच्छा  बुरा जानती  है 
चाहे  कितने  आवरण धरो  अभिरुचि  असली पहचानती है 

बिन मांगी  सलाह  है ये, चलती  बयार की दिशा जान लो 
जो लिखते आम आदमी हित, उनसे रच पच सही ज्ञान लो
खुद को संतुष्टि मिलेगी ही,  कुछ समाज का ऋण उतरेगा 
यदि हुआ न ये तो सारा दीवान सूखे  पत दल  सा बिखरेगा  

श्रीप्रकाश शुक्ल
इसलिये आओ  ह्रदय में 

कुंतलों की लटक तेरी, जैसे लता तरु को चपेटे 
भावनाएं इतनी सुवासित, जैसे हों चन्दन लपेटे 
रूप की सज्जा से बढ़कर आतंरिक सौंदर्य है जो 
संसार को चंगुल में बांधे नारि तेरी शक्ति है वो 

छाँह -चितवन में तेरी यदि, रह सकूँ पर्यन्त जीवन 
तो अमरता प्राप्त कर लूँ, पा सके जिसको न सुरगण 
यदि गुलाबी पँखुडीं द्वि, छू लें पिपासित अधर मेरे  
तो मैं पालूं दिव्य सुख वो, जिसको तरसते सुर घनेरे  

भाल की विंदिया तेरी,  दे रही सम्मोहक निमंत्रण  
सौंदर्य की प्रतिमूर्ति तू, संभव नहीं आसंग निवारण 
इसलिये आओ  ह्रदय में, सुमुखि बस जाओ यहाँ 
आवास इससे और निर्मल मिल सकेगा फिर कहाँ

श्रीप्रकाश शुक्ल   
इसलिये आओ ह्रदय में

नाम को चरितार्थ करने को रहे, हरसमय तत्पर  
धर्म का अभ्युदय करने  आप आये उतर  भूपर 
क्या अजामिल, द्रोपदी, गज पर पड़ी जब आपदा 
हर भक्त का  दुःख दूर करने  दौड़े आये  सर्वदा 

मैं  पतित हूँ आप कहलाये पतित पावन सर्वथा  
मैं गरीब दीन हूँ, आप  दीनानाथ कहलाये सदा 
भूलकर सब दोष मेरे कारुण्य बरसाया  बराबर  
जब भी मैं पथ भूल बैठा पंथ दिखलाया निरंतर 

नाम सार्थक न हुआ तो जग हंसेगा आप पर  
कृपा बिसराने के ताने जग कसेगा आप पर 
इसलिये आओ ह्रदय में और बस जाओ यहाँ 
मुझसे  बढ़कर पातकी  फिर और पाओगे कहाँ 

श्रीप्रकाश शुक्ल 

Friday 30 January 2015

धरा पे लिख दें, हवा से कह दें 

कितने वर्षों से हम खुद को छलते रहे,  
मरुथल में पानी का पाले भरम 
ज़मीनी हक़ीक़त से अनजान थे जो,  
सौंप उनको चमन, भूले अपना करम 
दिल पे पत्थर रखे, अब तलक जो सहा,   
नयी पीढ़ियां अब न हरगिज़ सहेंगीं 
धरा पे लिख दें, हवा से कह दें 
बदलियाँ छट चुकीं , रश्मियाँ अब बहेंगीं 

जयद्रथ अनाचार का मद में डूबा, 
ढा रहा था कहर हम रहे हाथ बांधे 
अभी शेष दिन है न डूबा है सूरज,  
खड़े पार्थ अनगिन हैं गांडीव साधे 
चक्रव्यहू में फँसी खेत आई व्यवस्था, 
दुःख भरी ये कहानी जमातें कहेंगी  
धरा पे लिख दें, हवा से कह दें, 
हौंसले जाग उट्ठे,  न स्याह रातें रहेंगीं   

जन्म से ही पले सद्भाव की गोद में हम, 
न सोचा  कभी  कौन  छोटा  बड़ा है  
गोप पुत्रों के संग खेलते  द्वारकाधीश, 
इतिहास इन कथाओं से भरा पड़ा है 
प्रतिज्ञा है देवव्रत की भारत की भू पर, 
बातियाँ  स्नेह की, हर  घर जलेंगीं 
धरा पे लिख दें , हवा से कह दें,
भले सूरज टले ,  न ये राहें टलेंगीं 

श्रीप्रकाश शुक्ल 

 
धरा पे लिख दें, हवा से कह दें 

है आज भारत भूमि  पर आंधी  चली बदलाव की 
स्वच्छ ऊर्जा,  स्वच्छ पानी, नव कथा हर चाव की  
नीतियाँ  घूंघट  उठाये, प्रतिबद्धताएं  सत्यता की 
धरा पे लिख दें हवा से कह दें ये डगर होगी भद्रता की    

आवाज़ आती  मरुथलों से मत कहो बीरान हैं  हम   
आँचल छुपाये खनिज ढेरों  देश की अब शान हैं हम 
कल्लोल कर नदियाँ सुनातीं नित नयी सरगम धुनें 
नौकाएं निर्मल सलिल में  निर्बाध सुख  सपने  बुनें 

चलने लगीं  ऐसी  हवायें, जो  वारिदों के पंख काटें  
रवि  रश्मियों  में  रोष  है, जो  तिमिर  के अंग छांटें   
नैराश्य ओढ़े सो गये जो,  छुट गया आधार जिनका  
धरा पे लिख दें हवा से कह दें अब जगेगा भाग्य उनका

श्रीप्रकाश शुक्ल 

Wednesday 21 January 2015

केसर घोल रहा है सूरज, अभिनन्दन 

नीले नभ में छटी बदलियाँ, मिहिर रश्मियाँ खिल आयीं 
अम्बर की  परिमिति नापने, खग दल ने पाखें फैलायीं  
तट पर बाँध सुरक्षित नौका, जो  सोये थे हारे, मन मारे   
लहरों का सीना चीर बढ़े वो बीच भंवर में, छोड़ किनारे 

भू पर सिंहनाद गूंजा, नाच उठा सारा जन गन 
केसर घोल रहा है सूरज, अभिनन्दन

लोक तंत्र की दीवारों को खोखला कर रही थी जो दीमक 
उसको आमूल नष्ट करने को रचे गए अनुकूल नियामक
पर कौओं की काँव काँव ने होने न दिया सार्थक चिन्तन 
अध्यादेश का पर्वत लेकर आ पहुंचा तब  मारुति नंदन 

हड़बड़ी मची राक्षस दल में  इसका अब क्या निराकरन  ? 
केसर घोल रहा है सूरज, अभिनन्दन

राज प्रासादों में बैठे जो आंक कर रहे थे राज्य व्यवस्था 
असलियत जमीनी से जिनका रहा न कोई कभी वास्ता 
ऐसे पराश्रयी  दक्षों को सम्मान पूर्वक  विदा कर दिया 
नीती आयोग गठन कर के  भारत रूपांतर शुरू कर दिया  

जीवन के शाश्वत मूल्यों का  हो न सकेगा अब विघटन 
केसर घोल रहा है सूरज, अभिनन्दन

जन विकास के हेतु बन रहीं नित प्रति नयी योजनाएं  
जनता में विश्वास भर रहा, मिट रही अमंगल  शंकाएं 
अब वो दिन ज्यादह दूर नहीं जब चमकेगा सम्पूर्ण चमन 
ऐसी  रचना के सूत्रधार को आओ हम सब मिल करें नमन 
केसर घोल रहा है सूरज, अभिनन्दन

श्रीप्रकाश शुक्ल 

केसर घोल रहा है सूरज, अभिनन्दन

शासन की अनृत नीतियों 
से  होता रहा त्रसित जन गन 
ऊँच नीच का भेद न छूटा  असहायों  का  हुआ   दमन  
गणतंत्र  नींद से जागा अब,  सुनकर कारुण्य भरा क्रंदन 
अच्छे दिन लाने की खातिर, होने लगा सार्थक चिंतन 
द्वार प्यार के खोल रहा है,  हर्षित मन 
   
केसर घोल रहा है सूरज, अभिनन्दन

दुविधा के दिन मिटे, हो रहे जन हित निर्णय आनन-फानन  
ऊर्जा उछाल ले बह निकलेगी, होगा ज्योतित सम्पूर्ण चमन 
जगती पर फैलेगी हरीतिमा, मुरझा न सकेगा कोई भी तृण 
स्वच्छ धरा पर फिर डोलेगी ,सुरभित शीतल मलय पवन 
भाषा विपन्न की बोल रहा है,एक अकिंचन 
केसर घोल रहा है सूरज, अभिनन्दन

नदियों के निर्मल जल में प्रतिबिंबित हो जब चन्द्र किरण 
आलोक अमित फैलाएगी , हर गाँव शहर  होगा वृन्दावन 
नाचेंगे कृष्ण गोपियाँ मिल ,श्रद्धा  विश्वास भरा हर मन 
इस प्रयास में अर्पित हैं जो , आओ उनको हम करें नमन 
मिलकर ही  तोड़े जाते हैं, सदियीं के बंधन 
केसर घोल रहा है सूरज, अभिनन्दन

श्रीप्रकाश शुक्ल 

जीवन के नवल वर्ष 

अगणित आशाएं लिए हुए हैं, ओ जीवन के नवल वर्ष 
तुम हमको निराश मत करना

अर्थ परिग्रह के लालच में  जीवन प्राण विहीन हो गया  
भौतिक विकास का भोगी बन मानव एक मशीन होगया  
पग तले पड़ी कुचली नैतिकता, शाश्वत मूल्य कराह रहे  
मानवता  का जीवन दूभर, अपचारी पाते   जो चाह रहे  

हम ठाने बैठे हैं जन जन में लाएंगे, इक नया हर्ष  
तुम पथ मेरा अवरुद्ध न करना 
ओ जीवन के नवल वर्ष,  तुम हमको निराश मत करना

देश पड़ोसी कैसे भी हों संभव नहीं बदलना उनको 
पर संभाव्य दोस्ती है, जो समझें अपने जैसा उनको 
जो बीत गयी  सो बात गयी अब उसका क्या रोना धोना 
जब  मिल कर रह सकते है, तो अमन चैन फिर क्यों खोना 

अब से सब मसलों का होगा एक मात्र रस्ता विमर्श 
तुम मेरा विश्वास न हरना 
ओ जीवन के नवल वर्ष,  तुम हमको निराश मत करना

हम  तुम  संतति एक बंश की, नाड़ी  एक धड़कती है 
जब तुमको संकट घेरे तो मेरी  भी  आँख फडकती है  
जब भी क्रूर नियति के हाथों  देश पडोसी  हुआ अनुतपत 
हम भी  निर्लिप्त नहीं रह पाये ह्रदय हमारा  हुआ व्यथित   

भूल कदापि नहीं होगी अब मिल कर लाएंगे जीवनोत्कर्ष  
तुम अंतस में करुण भावना गढ़ना  
ओ जीवन के नवल वर्ष,  तुम हमको निराश मत करना

श्रीप्रकाश शुक्ल 

सृजनकार का वन्दन 

तू  है रचनाकार  जगत का  तू  ही  है पालन करता  
निर्विकार अरु निराकार तू  मात पिता तू  ही  भरता  
कहते  हैं  तुझे  समी, आदिल,  राज़िक़, ज्ञाता, बसीर 
ये खूबियाँ सभी तेरी हैं तू हर आदम का जमीर 
(समी : सुननेवाला, आदिल: न्याय करनेवाला, राज़िक़: रोज़ी देनेवाला,बसीर : देखनेवाला )

सबका मालिक एक तू ही है, कोई समझ न पाता  
तेरी कृपा दृष्टि पाकर सब दुःख छूमंतर हो जाता  
तू ही मार्ग दिखाता सच्चा, तू ही विधि का निर्माता  
ईशदूतत्व रचे तूने, जिनसे इन्सान हिदायत पाता 

सद निष्ठा से, उपकृत होकर, ऐसे सृजनकार का वन्दन  
केवल वांछित नहीं, जरूरी है, चाहो जो नैसर्गिक बंधन 
विश्वास आस्था औषधि हैं, जो आचरण संतुलित करते 
आचरण संतुलित हो तो फिर सुखिया सारे दिवस गुजरते   
 
श्रीप्रकाश शुक्ल 

ईशदूतत्व: ईश्वर ने हर एक के लिए कुछ सिद्धांत व नियम बनाए। इन्सान ईश्वर की अनुपम सृष्टि है, इसलिए उनकी हिदायत व रहनुमाई के लिए एक प्रणाली बनाई, जिसे ईशदूतत्व कहते हैं।

जिंदगी की वाटिका में 

जिंदगी जीने चला था सिर्फ़ सुख की चाह लेकर 
यह कभी सोचा नहीं हर गुल को कांटे घेरते हैं 
जिंदगी होती नही है पुष्प सज्जित सेज केवल 
हर लम्हे को नियति के अंकुश अवसि ही फेरते हैं 

कितने झंझावात आये, जिंदगी की वाटिका में 
भयभीत हो आश्रय हिले, कांपे, मगर टूटे नहीं 
आस्था की जड़ें भी कँपकपायीं, बार कितनी 
पर संकल्प जो थे साध रक्खे वो कभी छूटे नहीं  

मानते अनुराग ही है, सुख दुःख का जन्म दाता,
पर मात्र देता कष्ट ही, अनुराग जो भौतिक रहा 
जो  समर्पण कर  सका  पूरा, जगत के ईश को 
हर बृक्ष उसका जिंदगी के बाग़ में  पुष्पित रहा  

जिंदगी उसके  लिए इक भार होकर रह गयी है  
सीखा नहीं कुछ पेड़ से, जो खड़ा बगिया में रहा 
रात दिन जिसने लुटाये फूल पत्ती फल खुले दिल 
अंत में हो खुद समर्पित  कर्म  निज करता  रहा 

अब भी समय है चेत जा जिंदगी की कर समीक्षा 
नूर की किरणें तुम्हारी कर रहीं  प्रतिपल प्रतीक्षा 
दूसरों के प्रति सदाशयता का नाता जोड़ कर चल 
भटके हुये हैं डगर जो,उनका पथ तू मोड़ कर चल  

श्रीप्रकाश शुक्ल