Friday 14 November 2014

सूरज अस्त होगया

बेड़ियाँ दासता की पहने जब सारा भारत स्वार्थ ग्रस्त था 
बुज़दिली ओढ़ सर सोया था यद्धपि हर नागरिक त्रस्त था 
जब अँगरेज़ अस्मिता पर मेरी, नित प्रति कोड़े बरसाते थे  
जब अपने घर में ही हम, बन भीगी बिल्ली सो जाते थे 

इक बालक पैदा हुआ कटक में रग रग मे भरा जोश था 
अनुयायी स्वामी विवेक अरविन्द घोष का, नाम बोष था 
हुंकार भरी उठकर बोला तुम मुझे खून दो मैं आज़ादी दूंगा  
हर देशभक्त की बलि का बदला मैं गिन गिन कर लूँगा    

जीवन भर लड़ता रहा देश हित योरुप वाले दोस्त बने 
जर्मनी चीन जापान कोरिया इटली मांचुको मित्र  घने 
पूर्ण स्वराज लक्ष्य था जिसका , दृढ़ फौलादी निश्चय 
यदि हम ठीक साथ देते तो कौन रोक सकता था जय 

अंग्रेजो ने मिथ्या आरोप लगा ग्यारह बार जेल भेजा 
रचकर कुचक्र षणयंत्र अनेकों भारत भू से दूर सहेजा 
वो जान रहे थे नेता सुभाष चलता फिरता डायनमो है  
इर्द गिर्द जिसके प्रकाश है,गुट क्रांतिवीर का संपुट वो है  

अपनों ने ही झूठी अफवाह दे, दनियां को गुमराह किया 
अथक प्रयास के बाबजूद ,सच क्या है सब से छुपा लिया 
बोला, विमान जिसमें सुभाष थे ताइवान में ध्वस्त हो गया 
बिलख बिलख कर रोया  भारत उगता सूरज अस्त होगया  

हर भारत वासी के दिल में, नेताजी अब भी बसते हैं 
ऐसा शूरवीर पाने को, सारी दुनियाँ के लोग तरसते हैं  
हमने धैर्य नहीं खोया है, सच्चाई कभी न मिटने देंगे 
ऐसी चली चाल जिसने,दण्डित कर ही,उसको दम लेंगे 

श्रीप्रकाश शुक्ल 

घना जो अन्धकार हो
 
 सुःख दुःख  जिंदगी में समय समय की बात  है 
 कभी अँधेरा  मय  दिवस है कभी अँधेरी  रात है 
 ढल गया  दिन ठीक से तो रात  भी ढल जायेगी 
 कोई अँधेरी रात  जीवन भर  नहीं  टिक पाएगी   
 नैराश्य मत जी में भरो  हार  कितनी  बार हो 
संकल्प ले  डट कर लड़ो घना जो अन्धकार हो 

 नियति  की मार से कौन बचकर रह  सका 
 देव दानव ईश  मानव सभी का साहस ढहा 
 प्राय प्रकृति कोप से ऐसा लगा सब ध्वस्त है 
 छागए  बादल तिमिर के देख मानव त्रस्त है 
 पर न छोड़ी आस जिसने चाहे डगर दुश्वार हो 
चिंता न की उसने तनिक घना जो अन्धकार हो

श्रीप्रकाश शुक्ल 

 
घना जो अंधकार हो

मद  भरा दुशासन, कर रहा चीर हरण, प्रकृति द्रोपदी आर्त चिल्ला रही 
अस्मिता हो रोज ध्वस्त, अंग अंग हुआ त्रस्त, कलौंछ मुख पै छा रही  
कब तक सहन करे, अनियंत्रण वहन करे,प्रकृति दे संदेशा, शामत आ रही 
जो सोयी रही चेतना, न रोकी अवहेलना, मौत है सुनिश्चित नज़र आ रही  

प्रकृति जल रही आज, भूले  हम  नियत  काज, भूले  व्यवहार  क्या 
ओढ़ आवरण कृत्रिम, छल रहे खुद को हम, क्यों?किया विचार क्या 
जरूरतें सँवार लें ,प्रकृति जननी मान लें, दिल  में असीम प्यार हो 
घना जो अंधकार हो, कष्ट बेशुमार हो, पर न मन में  कभी हार हो  

श्रीप्रकाश शुक्ल 
आज दीपक राग गा लूँ 

मानवता की मंगल छवि से आज आस्था  नष्ट हो रही 
द्वेष जन्य पशुता कटुता जन जन में बिष बीज बो रही  
जन सेवा का भाव विगत है व्यक्ति व्यस्त कितना पा लूँ  
जो भी संचित पर्याप्त नहीं क्या,आओ ऐसी सोच भुला लूँ 
आज दीपक राग गा लूँ 
 
अज्ञान तिमिर से आच्छादित सारा परिवेश आज दुखमय 
सच्चे दीपक की पहचान न कोई कैसे बीते जीवन सुखमय 
सच्चा दीपक कण कण गल कर चाहे खुद को भले मिटा लूँ 
पर इस जगती के सघन कलुष को घेर समूचा अंक छुपा लूँ 
आज दीपक राग गा  लूँ 

आज हमारे स्वर में कम्पन लय भी न ठीक से बंध पाती है 
मन वीणा के तार संवारूँ अंतस में निशीथिनी घिर आती है 
उद्द्विग्न मना चिंतित हूँ मैं कैसे जग से कुविचार  हटा लूँ  
जन जन में हो निहित सदाशय ऐसी पावन ज्योति जला लूँ   
आज दीपक राग गा  लूँ 

श्रीप्रकाश शुक्ल 
जो मेरा संस्कार बन गई

जो मेरा संस्कार बन गई, है बात वो दादी नानी की   
भूखा रहना पड़े मगर, भरपूर अतिथि  मेहमानी की   
छोटों को थपकियाँ प्यार की,अग्रज को शीश नवाना   
जन्म भले हो तंग गलियों में, नभ में उड़ान भर जाना    

जो मेरा संस्कार बन गई, है वो ऋषि मुनियों की वाणी  
अद्भुत अमूल्य जग की निधि,जिसने कुरीतियों से ठानी  
ये दिव्य बयन केवल भारत में, सारा संसार इसे जाने  
मानव की वाणी पाली, शांति संजोयी, जग पहचाने 

जो मेरा संस्कार बन गई, निकली वो बात ह्रदय तल से  
सच का संगी बन के रहना, भय बस प्रीत न करना बल से 
सभी शक्तियां निहित स्वयं में, अपने अंतस में झांको 
सभी कार्य कर सकते हो, कभी न अपना बल कम आंको 
जो मेरा संस्कार बन गई, है परम्परा वो भारत की 
भला दूसरों का चाहें, विचलित करती ध्वनि आरत की  
जो सीखा,सद उपयोग करें विद्द्या ददाति विनियम हो 
जियो और जीने दो का ही जग में सर्वत्र  नियम हो 

श्रीप्रकाश शुक्ल 

किसे दोष दूँ

देख रूढ़ियों में ग्रसित, मन में उठती हूक 
किसे दोष दूँ जब हमीं, रहे कूप मंडूक 

जैसे जैसे बढ़ रहा, जग में भौतिक ज्ञान  
किसे दोष दूँ उचटता, मन से प्रभु का ध्यान 

रहते स्वजन विदेश में, मन रहता आपन्न 
किसे दोष दूँ हम स्वयं, रहे प्रलोभ निमग्न  

सुख दुःख के क्षण पीर दें, जब भी करते याद 
किसे दोष दूँ खुद करें, अपना दिन बरबाद 

नाकामी का ठीकरा, औरों के सर फोड़ 
किसे दोष दूँ हम सभी, ढूंढें दुःख का तोड़ 

 श्रीप्रकाश शुक्ल 

चाँद सपना देखता है

 चाँद सपना देखता है काश वो दिन कभी आये 
 दाग दामन पर लगा जो वो सदा को छूट जाये  

  दाग तो लगते रहें हैं राम को घनश्याम को भी 
 पर दाग जो जनहित लगे वो सभी को राज आये  

 गलतियाँ हो जायें तो इन्कार मत करना कभी 
 एक छोटी भूल ही विश्वास जग का डिगा जाये 

 यद्यपि गुनाही देखने को दिल का दर्पण ठीक है 
 बिरला ही वो इंसान है जो कि सच को देख पाये 

"श्री"बंधु बस तू दमकता रह खूबियाँ अपनी सॅंजोए 
दाग की क्यों फ़िक्र करता जब सुधारस यों लुटाये 

श्रीप्रकाश शुक्ल 
तुझे भी चाह उजाले की

जो लालसा लालच में फंस यों ही भटक रह  जाएगा  
जिंदगी की राह अंधियारी रहेगी कुछ नज़र न आएगा 

तुझे भी चाह उजाले की है दौलत और शोहरत के  
मगर क्या जानता है, ये उजाला तिमिर भर फैलाएगा  

है कौन तू, आया यहाँ क्यों,  जो सुलगती प्यास है 
मन शांत कर चिंतन किया तो सहज हल मिल जायेगा   

चाह कोई  भी रही हो, अब तक दिया  है चैन किसको ?  
यदि रह  सका तू दूर इससे,  अमन  के पल पायेगा 

सच्चा उजाला चाहता यदि, झाँक अपने आप में  तू  
दिल के  कौने में छुपा  रहबर तेरा दिख जाएगा  

जिंदगी तूने  बिता दी भटक कर "श्री"  व्यर्थ में यों , 
धीरज बँधा तू जा किसी को ज्ञान पट खुल जाएगा 

 श्रीप्रकाश शुक्ल 
संध्‍या सिंदूर लुटाती है !

ढलते रवि की रश्मियाँ सुकोमल,
हरित पीत पत्तों से छनकर  
रुण युगल मुख पर जब गिरतीं,
दीप्तिमान हो जाते खिलकर  
तन में मादकता छाती है  
संध्‍या सिंदूर लुटाती है !

पावस निशादि की मणि सम बूँदें,
आँगन में करतीं किलोल जब 
गुंजित ध्वनि रस राग छेड़ती,
बिरहिन बेचैन विलखती तब  
धड़कन ह्रद की बढ़ जाती है 
संध्‍या सिंदूर लुटाती है !

नित रात्रि उघरने से पहिले, 
श्यामल संध्या घर आती है 
पळकावृत मृदु सपनों में,
मधुमय मिठास भर जाती है 
जीने की ललक जगाती है 
संध्‍या सिंदूर लुटाती है !

घंटियाँ चर्च की बजतीं जब,  
आरती गूंजती मंदिर में  
अजान सुनाई दे मस्जिद से, 
सद्भाव उभर उठते उर में  
धुल,रूह विमल हो जाती है  
संध्‍या सिंदूर लुटाती है !

ये साँझ प्रीतिकर रही सदा, 
कोमल तत्वों से खेली है 
विस्मृत अतीत को कुरेद,
करती उससे अठखेली है 
सुधि उफान ले आती है 
संध्‍या सिंदूर लुटाती है !

दिनकर थककर घर लौटे ,
साँझ खड़ी आरती उतारे 
गगन थाल में रखे सजा कर  
अक्षत, रोली, दीपक तारे 
मुख पर लालिमा सुहाती है 
संध्‍या सिंदूर लुटाती है !

श्रीप्रकाश शुक्ल