आज दीपक राग गा लूँ
मानवता की मंगल छवि से आज आस्था नष्ट हो रही
द्वेष जन्य पशुता कटुता जन जन में बिष बीज बो रही
जन सेवा का भाव विगत है व्यक्ति व्यस्त कितना पा लूँ
जो भी संचित पर्याप्त नहीं क्या,आओ ऐसी सोच भुला लूँ
आज दीपक राग गा लूँ
अज्ञान तिमिर से आच्छादित सारा परिवेश आज दुखमय
सच्चे दीपक की पहचान न कोई कैसे बीते जीवन सुखमय
सच्चा दीपक कण कण गल कर चाहे खुद को भले मिटा लूँ
पर इस जगती के सघन कलुष को घेर समूचा अंक छुपा लूँ
आज दीपक राग गा लूँ
आज हमारे स्वर में कम्पन लय भी न ठीक से बंध पाती है
मन वीणा के तार संवारूँ अंतस में निशीथिनी घिर आती है
उद्द्विग्न मना चिंतित हूँ मैं कैसे जग से कुविचार हटा लूँ
जन जन में हो निहित सदाशय ऐसी पावन ज्योति जला लूँ
आज दीपक राग गा लूँ
श्रीप्रकाश शुक्ल
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