Saturday 26 July 2014

मनोदशा एक प्रोषित कवि की 

जब कविता प्रेमाकुल मचले बिम्ब अनेकों खुद मड़रायें 
खिड़की चोखट सांकल खटिया शतरूपे की उपमा पायें 
तारे चन्दा गगन चांदनी आपस में घुल मिल बतियाएँ 
पत्ते पतझड डाल डालियाँ पंचम स्वर में गाना गायें 

परस उँगलियों का मधुरस हो साडी दे सतगुणी पुलक भर 
पुरबा के झोंकों से बिखरे केश भरें मन में मादक स्वर  
पायल की रुन झुन की ध्वनियाँ  करके पार सात सागर 
कानों में आ सिहरन भर दें, नाच उठें जड़ चेतन  नागर 

समझो भारत का इक पंछी  फंसा हुआ स्वर्णिम पिंजड़े में 
उलट पुलट सुधियों के पन्ने खोज रहा अपनों को मन में  
सोच रहा अब कैसे निकलूं  काटूं कैसे  ये कनक सलाखें 
कैसे तोड़ूँ ये बंध सघन से कैसे  फड़काऊं सिकुड़ी पाँखें  

श्रीप्रकाश शुक्ल  

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