Saturday 26 July 2014

वात्सल्य का कंबल 

जब  भी  राह न पाता हूँ माँ , घिरता  चारो  ओर अँधेरा  
पाथेय  हमारा  बन  जाता है, वात्सल्य  का  कंबल तेरा  

जब विपत्तियों का पहाड़, अनजाने आ सर पर गिरता है   
टूट बिखर जाती तब निष्ठा, ईश्वर से  भी मन फिरता है  
लगता सब  कुछ खो बैठा हूँ, अब तो जीवन ही निसार है  
संभवतः यह नियति हमारी, जिसने हम पर किया बार है  

आबाज आपकी  धता बताती, कहती ये कायर पन  मेरा 
नियति नहीं आश्रित संयोग पर, श्रम ले आता नया सवेरा   

जब  मौसम  का तापमान, गिरते  गिरते इतना गिरता है 
हाथ  पाँव  ठंडे  पड़  जाते, सुलझा सब काम  बिगड़ता है 
दृढ़ निश्चय की निर्भय प्रतिमा बन,तब तुम माँ आ जाती हो   
उलट  पलट  फंदे  विवेक  से, उलझी  गांठे  सुलझाती हो 

मंत्रणा आपकी  धैर्य  बंधाती, कहती है ये  मन  का फेरा  
तब ओढ़, चैन से सो जाता हूँ , वात्सल्य का  कंबल तेरा  

श्रीप्रकाश शुक्ल 

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