Sunday 13 April 2014

जीवन के ढाई आखर को

     जिसने पढ़ा लिखा समझा जीवन के ढाई आखर को 
  जिसने बांटा दर्द, किया साझा औरों की शंका,डर को 
  जिसके भर आये नयन  देख गीली  आँखें औरों की 
  जिसको कसकी पीर हमेशा  अपनी सी ही गैरों की  
  
  जिसने बढ़ती हुयी घृणा को आड़े हाथ लिया है 
  जिसने कोमल भावों का बढ़ चढ़कर साथ दिया है 
  सच पूछो तो उसने ही जीवन का मरम जिया है 
  उसने ही जीवन घट में अमृत रस पान किया है 

   वो मनुज नहीं है देव तुल्य है या कोई अवतारी है 
   औरों के दुःख को जीना उसकी अपनी लाचारी है 
   वो आता है इस जग में केवल एक मसीहा बनकर    
   और लौट जाता है, जग को सन्देश प्रणव का देकर  

श्रीप्रकाश शुक्ल 

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