जीवन के ढाई आखर को
जीवन के ढाई आखर को जीवन में आज उतरने दें
दुर्भावों की दावानल को दें बुझा न और पनपने दें
ये आखर तो युग युग से रहे सनातन अजर अमर हैं
भाषा कोई भी रहे मगर अनुभूति, बोध, इक स्वर हैं
इन शब्दों में रहा समाया विश्वास भरोसा और समर्पण
बंधन सब ही नश्वर होते जब खींच बाँध लेता आकर्षण
धीरे धीरे सहृदयी सोच बदल जाती अशरीरी एहसासों में
भाव पराये अपने का फिर नहीं समाता उच्छ्वासों में
ये प्रेम पगे ढाई अक्षर जो आत्मसात कर अपनाता है
वो जाति धर्म रंग के विभेद को बिन प्रयास झुठलाता है
आवश्यक है आज जगत में हम सब ऐसा परिवेश बनायें
समरसता की पैनी किरणों से कटुता के बादल छटते जायें
श्रीप्रकाश शुक्ल
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