Tuesday 22 April 2014

पूज्य भाई जी की तृतीय पुण्य तिथि पर अंजलि भर प्रेम पूरित सुमन 

आज आपकी पुण्य तिथि पर, हम सब फिर एकत्रित हैं
मनन कर रहे मधुर संदेशे, मनस पटल पर जो  चित्रित है
तीन बरष बीते यद्यपि पर, आशीष आपका  सदा मिला  
वेदान्त मिशन का संवल ले, जीवन यापन भी सुखद चला

लेखा जोखा आज दे रहे, चमन आपका महक रहा है 

बन्धु बांधव सभी सुखी हैं, कुनबा सारा चहक  रहा है 
भईया गोपाल, रोहिणी  ने मिल, कार्य अधूरा निपटाया है 
राम और गीता निवास को,  सुन्दर  इक, नीड़ सजाया है 

वायुयान  में बिठा बेटियाँ ,संबंधों से  मिलातीं हैं 
रक्षाबंधन पर बहिनों की पलकें गीली हो जातीं हैं 
सत्यप्रकाश, श्री, राम दत्त, नित याद आपकी करते हैं 
और प्रभा जी  के आंसूं खुशियों में भी छलक पड़ते  हैं
गौरव, समीर निज गरिमा से गुलशन की शान बढ़ाते हैं
शाश्वत, चिन्मय चाव सहित अध्ययन में ध्यान  लगाते हैं
अक्षय  और शहाना ने चुन, नव जीवन लक्ष्य बनाया है
मंदिरा, पर्णिका, स्तुति ने परचम ऊंचा लहराया है 

हमें ज्ञात है आप वहां पर, बंधन मुक्त प्रफुल्लित हैं 
दिव्य गुणों से पूर्ण मनुज पा, देव सभी  भी हर्षित हैं
प्रेम और श्रद्धा से पूरित अंजलि भर पुष्प चढ़ाते हैं हम 
आप वहां पर रहें अनिश्चित, प्रभु से यही मनाते हैं हम 

समस्त परिवार 
२१ सितम्बर २०१२ 


पूज्य भाई जी के चौथे निर्वाण दिवस पर श्रद्धा सुमन 

हर सितम्बर माह में आबाज़ इक  गूंजती गूंजती 
बन्धुओ मिलकर रहोमिलकर रहोमिलकर रहो  

भौतिक सुखों की चाह का अंत कोई भी नहीं 
पाओगे जितना हीउतना लोभ बढ़ता जाएगा, 
संभव नहीं तुम कर सकोगेलालसा मन की सफल 
शांति मन की दूर होगीहाथ कुछ  आयेगा

हर सितम्बर माह में आवाज़ इक  गूंजती, गूंजती,  
पंथ सेवा का गहोपरमार्थ का ही पथ गहो 

जीवन डगर है बहुत मुश्किलअडचनें पग पग खड़ी  
पार कर लोगे अकेलेये तुम्हारी भूल है
साथ ले सब को चलोगेरास्ता कट जाएगा 
सोच आधारित अहम् परसर्वथा निर्मूल है  

हर सितम्बर माह में आवाज़ इक  गूंजती, गूंजती, 
साथियो मिलकर चलोमिलकर चलो मिलकर चलो 

आवाज़ ये उसकी नरों मेंजो रहा उत्तम सदा, 
काम औरों का रहाअपने से बढ़कर सर्वदा  
भाव सेवा का समेटेजो सिमट कर खुद रहा 
आज उसको ह्रदय मेरानमन शत शत कर रहा 

हर सितम्बर माह में आबाज़ इक  गूंजती गूंजती 
बन्धुओ मिलकर रहोमिलकर रहोमिलकर रहो  

                               समस्त परिवार   
                              २१ सितम्बर २०१३ 
पूज्य भाईजी की मधुर स्मृति में श्रद्धा  सुमन

परिवार जनों के सुदृढ़ संबल
                      मित्र जनों के परम मित्र |
करुणा की साक्षात मूर्ति
                     सौहाद्र पूर्ण जीवन पवित्र |
कर्तव्य पथ पर अडिग निरंतर
                     सदा सत्य के अनुयायी |
दुखियों की जीवन गाथा सुन
                     जिनकी आँख सदा भर आयी |
सदा खोजते रहे स्वयं को
                     कर्म ज्ञान से पूर्ण व्यवस्थित |
कभी  विचलित अपने पथ से
                     चाहे जैसी बनी परिस्थिति |
जीवन के सार्थक मूल्यों को
                     आत्मसात कर खूब निभाया |
स्वयं प्रमाणित आवग्रत हो
                    छोड़ी सब पर अमिट छाया |
नहीं शब्द जो प्रकट कर सकूं
                    जो कुछ मैंने उनसे पाया |
कैसे भूलूँ उस दिव्य अंश को
                    जिसने सदा प्रेम बरसाया |
हमें गर्व भाई जी तुम पर
                    फिर भी मेरा मन अशान्त |
अंतिम प्रणाम स्वीकृत हो मेरा
                    पाओ अव्यय परम शांति |


        गीता-श्रीप्रकाश 


Sunday 13 April 2014

जीवन के ढाई आखर को

     जिसने पढ़ा लिखा समझा जीवन के ढाई आखर को 
  जिसने बांटा दर्द, किया साझा औरों की शंका,डर को 
  जिसके भर आये नयन  देख गीली  आँखें औरों की 
  जिसको कसकी पीर हमेशा  अपनी सी ही गैरों की  
  
  जिसने बढ़ती हुयी घृणा को आड़े हाथ लिया है 
  जिसने कोमल भावों का बढ़ चढ़कर साथ दिया है 
  सच पूछो तो उसने ही जीवन का मरम जिया है 
  उसने ही जीवन घट में अमृत रस पान किया है 

   वो मनुज नहीं है देव तुल्य है या कोई अवतारी है 
   औरों के दुःख को जीना उसकी अपनी लाचारी है 
   वो आता है इस जग में केवल एक मसीहा बनकर    
   और लौट जाता है, जग को सन्देश प्रणव का देकर  

श्रीप्रकाश शुक्ल 

जीवन के ढाई आखर को

जीवन के ढाई आखर को जीवन में आज उतरने दें  
दुर्भावों की दावानल को दें बुझा न और पनपने दें  
ये आखर तो युग युग से रहे सनातन अजर अमर हैं 
भाषा कोई भी रहे मगर अनुभूति, बोध, इक  स्वर हैं  

इन शब्दों में रहा समाया विश्वास भरोसा और समर्पण 
बंधन सब ही नश्वर होते जब खींच बाँध लेता आकर्षण 
धीरे धीरे सहृदयी सोच बदल जाती अशरीरी एहसासों में   
भाव पराये अपने का फिर नहीं समाता उच्छ्वासों में 

ये प्रेम पगे ढाई अक्षर जो आत्मसात कर अपनाता है 
वो जाति धर्म रंग के विभेद को बिन प्रयास झुठलाता है 
आवश्यक है आज जगत में हम सब ऐसा परिवेश बनायें  
समरसता की पैनी किरणों से कटुता के बादल छटते जायें   

श्रीप्रकाश शुक्ल 
रचे तोरण और बन्दनवार तेरे आगमन को

रचे तोरण और बन्दनवार तेरे आगमन को 
बैठे रहे पलकें बिछाये पथ तुम्हारे हम प्रतीक्षित 
तुम न आये लौटकर मोहन मदन,मेरे सखे 
कैसे बताएं किस तरह हम जी रहीं सखियाँ दुखित   

अश्रुओं की धार जब से तुम गये टूटी नहीं हैं 
याद पल भर भी तुम्हारी ह्रदय से छूटी नहीं है  
सूना पड़ा वो यमुन तट ग्वाल सब बेचैन हैं 
झलक पाने को तेरी निश दिन तड़पते नैन हैं 

आज उद्धव जी पधारे ज्ञान दें निर्लिप्तता का 
हम अनंगी प्रेम प्यासे क्या करें उस विद्वता का 
जिसको सुनकर पीर मन की तनिक भी घटती नहीं
मूर्ति जो दिल में गढ़ी तिल मात्र भी हटती नहीं   

आप हमको भूल जाएँ पर न सकते भूल हम 
दूरियां कितनी बढ़ें अनुरक्ति पर होती न कम 
हम पथिक हैं प्रेम पथ के प्रेम ही बस सार है 
जो न प्रिय के साथ हों तो जिंदगी निस्सार है  


श्रीप्रकाश शुक्ल
जो जीवन में जगा कौन उससे बढ़कर है 

जो जीवन में जगा, कौन उससे बढ़कर है 
संघर्षों से भगा, नहीं कोई उससे घटकर है 

कितनी भी विपदायें आयीं जिसने हार न मानी 
अपनी पीड़ा सम ही जिसने सब की पीड़ा जानी 
दर्द पराये  लेने को जो रहा हमेशा तत्पर है 
वो ही  जीवन जिया वही सब से  बढ़कर है 

जीवन की  सर्दी गर्मी में जो सम भाव रहा
कोई फेंके खींच या ठोंके पीठ न कोई परवा
लक्ष्य सदा ही रहा वही जो सब को हितकर है 
जो जीवन में जगा कौन उससे बढ़कर है 

लोलुपता का पाठ  कभी ना जिसने सीखा 
सद्पथ में स्वाद थपेड़ों का लगा कभी ना तीखा  
संघर्षों के बीच रहा जो  खड़ा सदा डटकर है 
ऐसा कर्मठ इंसान जगत में सब से हटकर है 

श्रीप्रकाश शुक्ल 
मंगल गान : स्वर्णिम सालगिरह अरोरा  दम्पति 

श्री जयराज और निर्मल दम्पति का, आज मधुर स्वर्णिम आबंधन 
मन मयूर नाचत आनंदित, थिरक थिरक करता अभिनंदन 
हँसते  हँसते समय विताया,  जीवन में कोई शिकवा न गिला 
जब बगिया के फूल महकते हो, ऐसा क्यों तब होता न भला 

अब यही कामना करते हैं जीवन की बगिया हरी रहे 
पग पग पर आ खुशियां बिखरें ये जोड़ी यूं ही सजी रहे 
महफूज़ रहें जीवन के पल दुनिया की सभी बलाओं से 
दोनों का साथ रहे सज्जित शशिधर की विविध कलाओं से 

आज हम सभी भावी जीवन की यही मनौती मना रहे                        
जोड़ी रहे सातवें नभ पर प्यार अपरिमित बना रहे 
जीवन की बगिया में, निश दिन ही आये नव बहार 
साथ स्वजन परिजन का, रहे लुटाता अतुलिट प्यार  

मंगल कामनाओं सहित 

शुक्ल परिवार 

कुछ भीगी तानें होली की 

ध्रुपद धमार ठुमरी में लिपटीं,कुछ भीगी तानें होली की  
गूँज रही फागुन में चहुँ दिश याद दिलाती हमजोली की  
ओढ़ चुनरिया  पीले रंग की सरसों झूल रही मुस्काती  
बिछड़े साथी की सुधि मन में, बादल सी मडरा जाती  

फागुन में हुरआये फगुआ, ढूंढ  रहे घर द्वार गली 
कोई कहीं ना छूटे ऐसा  जिसके घर होली न जली 
होली त्यौहार प्रेम रस रंग का हर्षोल्लास उमंगों का  
गलबाहें डाल मनायें इसको, नाम मिटा दें दंगों का 

अपना ही ऐसा देश जहाँ मद मस्ती के त्यौहार अनेक 
सभी भुलाते रंजिश शिकवे  दिल में भर आता विवेक 
प्रकृति थिरक उठती उन्मादित, कण कण उठता झूम 
नर नारी आमोद मनाते चहुँ दिश दिखे अपरिमित धूम 

श्रीप्रकाश शुक्ल