जिसे तुम समझे हो अभिशाप
कलुष मानसिकता से उपजी कैसी ये धारणा विशेष
युग युग से जो ही पनपती मौन रहा सारा परिवेश
बेटा ही सन्तति चालक, बेटा ही कुल का संरक्षक है
बेटी का भ्रूण मात्र जैसे, अंतस में सोया तक्षक है
कितनी भारी सी ये भूल जिसे तुम समझे हो अभिशाप
बेटी शक्ति स्वरूपा दुहिता, हरती जो सब का संताप
जिसकी कुशाग्रता, कर्मठता का है सब को संज्ञान
मानवीय मूल्यों का जिसने ,रखा अक्षुण सम्मान
ऐसी विधि की रचना को बोझ कोई कैसे कह सकता
बन कुरीतियों का शिकार कब तक समाज चुप रह सकता
आज समय की मांग यही, नारी का दमखम पहचानें
नारी में भरे शौर्य सागर का, अथाह गहरापन जानें
श्रीप्रकाश शुक्ल
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