Thursday 6 March 2014

कौन मन के दर्पण में

देह आत्मा के बंधन को त्रिगुण सदा संचालित करते   
गुणानुसार मानवीय प्रकृति में खट्टे मीठे रस भरते 
किसी तरह चलती थी नौका धीरे से हिचकोले लेती    
जीवन के नियत पड़ावों को छूती रूकती संबल देती    

अरे कौन मन के दर्पण में सहसा आज हुआ प्रतिबिंबित  
अनुभूति प्रेम की सहज उठी अंतस हो उठा स्वयं दीपित  
करुणा के अंकुर फूट पड़े, पर सेवा भाव हुआ  विकसित 
हृद  सागर शांत प्रशांत हुआ, लहर ज्ञान की उद्वेलित 

ये कृपा दृष्टि है प्रभु की, या फिर  निखरे पुण्य विगत के 
या रज, तम  को कर निरस्त, सत गुण हावी हुए उछलके  
जो भी हो आराद्ध्य हमारे आज मेरे मन मंदिर में स्थित 
जिनको बिन देखे रहे विकल और राह जोहते हुए व्यथित

श्रीप्रकाश शुक्ल 

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