किस रूप की सम्मोहनी
कण कण हुआ सौंदर्य रंजित जैसे हो दैवीय माया
भोर की रवि रश्मियाँ ने प्रकृति में आह्लाद लाया
उन्मत्त तरुवर झूम उट्ठे खग बृंद ने मृदु गीत गाया
सरिता, सरोवर हो मुदित हठखेलियाँ सी कर रहे
फूले कमल, अलि भूल रस, हर्षित किलोलें भर रहे
जलचर मगन, बहु प्रीत से घन अम्बु भू पर झर रहे
उर उल्लसित, पा इक झलक जन जीव प्रज्ञा हर रहे
कीलाल बिन तड़ित्वान् के टुकड़े बिचरते गगन में
ऐसे लगें जैसे कि अनगिन हंस हों उड़ते मगन में
रूप की सम्मोहनी ने, क्षिति बदन प्लावित किया
सानिद्ध्य देकर जगत को अनुताप सारा हर लिया
श्रीप्रकाश शुक्ल
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