आज अचानक सूनी- सी संध्या में
क्यों उदास आकुल बैठा तू, खोया सा क्यों रहता है
कोई नहीं दिखा धरती पर जिसने वियोग का दुःख न पाया
जिसने अतीत की सुधियों में,खोकर अपना मन ना दुखाया
हो सकता ये सत्य कथन हो, पर भूलूं कैसे वो घड़ियाँ
सुख की सौगातों सी थीं जब अधरों से झरती फुलझड़ियाँ
कितने राग भरे पल थे वो, थीं कितनी मृदुल मुलाकातें
कितने मीठे से सपने थे, कितनीं प्यारी मन हर बातें
वो आँचल का छोर कि जिसमें, तुमने आँसू छलकाये थे
वो अपना संसार कि जिस पर, हम दोनों इतराये थे
सहमे पद चाप भरीं गलियां वो नहीं भुलायी जातीं हैं
सांझे जो गुजरी साथ साथ, सोये अरमान जगातीं है
अब तो केवल यही शेष है, जब भी मचले पीर ह्रदय की
तोड़ कल्पना की सीमायें, रचूँ अल्पना मधुर प्रणय की
जब अनुभूति विकल हो इतनी, सूना सब संसार लगे
गीत व्यथा के हंस हंस गाऊं,शायद चित उल्लास जगे
श्रीप्रकाश शुक्ल
आज अचानक सूनी-सी संध्या में
आज अचानक सूनी-सी संध्या में, यों खयाल आया मन में
जो अपने थे दूर हुए क्यों, पतझर सा छागया चमन में
हम रोज देखते हैं चंदा से होते दूर सितारे नभ में
पर नहीं छोड़ते साथ सितारे, जब भी चंदा फंसे ग्रहन में
जिन कोमल पत्तों को हमने, पाला था पलकों में ढककर
छोड़ स्वजन, किस सुख की खातिर, लिप्त हुए वो धन अर्जन में
सम्भव नहीं भुला पायें वो, थके हुए जर्जर खम्बों को
जिनकी महज़ छुवन काफी थी, उर में उठते दर्द दमन में
अब तो उचित यही है " श्री "खुद को ही दोषी मानें हम
कैसे हम अनविज्ञ रहे, क्या होते परिणाम प्रलोभन में
श्रीप्रकाश शुक्ल
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