फिर भी मैं सुन लेता हूँ
किसमें शोर शराबा, किसमें है संगीत मधुर, चुन लेता हूँ
छल छद्म द्वेष से भरे पडोसी, बात मित्रता की करते हैं
मुझे पता है, सब धोखा है, पर फिर भी मैं सुन लेता हूँ
झेल न पाते खींचा तानी, रिश्तों के कच्चे धागे जब ,
चढ़ा प्रेम का पक्का पानी, दस्तरदां बुन लेता हूँ
मिथ्या आरोपों को सुनकर, भी होंठ सिये बैठे हैं जो
अवसाद भरा कितना उनमें, मैं दिल टटोल गुन लेता हूँ
मनुसाई से बढ़कर कुछ भी भाव न होता जग में "श्री "
फिर भी न रेंगता जूँ कानों पर, सोच रोज़ सर धुन लेता हूँ
श्रीप्रकाश शुक्ल
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