Sunday 13 October 2013

फिर भी मैं  सुन लेता हूँ 

चलती फिरती छाया सी घर में   
हर समय लिए कुछ ना कुछ कर में  
उठ तडके प्रातः नित , मध्य रात्रि तक  
काम काज से नख चोटी तक थक    
बिस्तर पर आकर  गिर जाती है 
कैसी हो ? बता नहीं पाती  है 
मैं स्वेद बिंदु गिन लेता हूँ   
क्या बीत रहा है गुन लेता हूँ  
     फिर भी मैं सुन लेता हूँ 

कोई कैसा भी काम बिगड़ता  
आ दोष सदा उसके सर मढ़ता  
घर भी देखे,  देखे दफ्तर भी 
लगती विविधि प्रयोजन प्लग सी 
कहने को तो है गृह की लक्ष्मी 
सारी निधि लुटा रहे सहमी सी 
हो व्यथित सिर्फ सर धुन लेता हूँ 
छलके मोती कण चुन लेता हूँ 
    फिर भी मैं सुन लेता हूँ 

वो है मेरे  सांसों की  सरगम 
वो है मेरे घावों की मरहम  
मेरे उपवन का हरसिंगार 
मेरे सुखमय जीवन की बहार 
उसके पोरों की मात्र छुअन 
हर लेती मन की सभी तपन 
साथ उसे पा, स्वप्न नए बुन लेता हूँ 
    फिर भी मैं सुन लेता हूँ 

श्रीप्रकाश शुक्ल 

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