Tuesday 6 August 2013

जब भी मुझे  कोई मुहब्बत से बुलाता है 
साथ देने को थोड़े ही न, खेमे में मिलाता है 

मैंने तिरे खतूत को, क्यूं कर जला दिया 
आता है ख्याल जब ये, धुंआ दिल में उठाता है 

ख्यालातों की उतरन, मुझे अच्छी नहीं लगती 
बुज़ुर्ग हो चला हूँ अब,  अपनी ही सुनाता हूँ 

सड़क बीच हो खड़े, गाते हो नजराना क्यूं 
रिझाना आशिकों को महफ़िल में ही सुहाता है   

दुनियाँ बदल गयी है, इस कदर से अब "श्री "
सोचता हूँ होगा आगे क्या, तो बस रोना आता है 

खतूत : पुराने ख़त 

श्रीप्रकाश शुक्ल 

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