Tuesday 6 August 2013

बहर है :- २१२२  २१२२  २१२२   २१२  
 
आजकल इंसान के मन, डाह कितना पल रहा  
देखकर चोटी किसी की  बे सबब ही जल रहा  


साथियो गर चाहते हो,जिन्दगी पाये सुकूँ  
साथ लेलो उस बशर को समय जिसको छल रहा 
           
तीर सारे नफ़रतों के,हों विफल मुसकान से 
ईंट का पत्थर से बदला क्या कभी भी हल रहा 

बात अपनी ही चलाने का जनूँ ऐसा चढ़ा   
इल्म खो बैठे तरीका-ए-ज़िरह कितना खल रहा  

जानता "श्री" मुश्किलों की धूप झुलसाती है मन  
लेपकर मरहम सबर की हर सफल इंसा च रहा  

 श्रीप्रकाश शुक्ल  

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