Wednesday 14 August 2013

बहता है उसे बहने दो 
 
उद्विग्नमना दुखप्लावित हृद से, 
स्पर्श सांत्वना का पाकर, 
दुःख का निर्झर फूट पड़े तो, 
उचित यही है, बांधों मत, 
बहता है उसे बहने दो 

जीवन के दुर्गम पथ में, 
आशाओं और निराशाओं के, 
सूरज भी हैं, बादल भी हैं  
समझ नियति की चाल,अगर  
मन सह सकता है, सहने दो 

जग में होता अनियाउ देखकर ,
जन में बढ़ता दुर्भाव देखकर,
उद्द्वेलित होता है यदि मन, 
प्रतिबंधित कर, टोको मत, 
बात पते की कहता है, कहने दो  

जग में झंझावात प्रबल हैं  
पर संभव सब के ही हल हैं 
शांत भाव, मर्यादित ढंग से 
बिनिमय विचार का होने दो 
मन में द्वेष न पलने दो 
अपने ही राग बिगाड़ रहे 
खिलता चमन उजाड़ रहे 
ज़िम्मे से पल्ला झाड़ रहे 
जो बोलूँ, बात अखरती है 
मैं चुप हूँ,चुप ही रहने दो 

विपदा के बादल आते हैं 
गर्जना घोर कर डरपाते हैं 
दामिनी भयावह लगती है 
पर कर्मवीर बन डटे रहो 
मन का विश्वास न ढलने दो 

श्रीप्रकाश शुक्ल 

Tuesday 6 August 2013

छककर दुःख सुख के घूँटों को

जो  इंसान  बे सबब   ही,  औरों  को  कांटे  बोते हैं   
नींद  बिगडती औरों  की, खुद  का  चैन  भी  खोते हैं    

छककर दुःख सुख के घूँटों को, जो पीते हैं एक भाव  
निश्चय ही वो ख़ुशनसीब, जीवन अश्रांत हो ढ़ोते  हैं                  

जीवन फूलों की सेज नहीं, है गुलाब  का पौधा  वो  
खुशबु-ओ-हुस्न के साथ साथ, जिसमें कांटे भी होते हैं 

संसार जलधि,जीवन नौका,लहरें है दुःख सुख जैसीं  
सोच समझ कर खेते जो, खाते नहीं कभी गोते हैं  

दोस्त  भरोसेमंद  मिलें तो, समझो  मेहर  खुदा की है  
बरना  रोज़ाना  कितने,  किस्मत  फूटी  पे  रोते हैं  

खट्टे मीठे फल जीवन में, कर्मों की फसल उगाती है  
जो समझे ना  क्या बोना, जागते हुए भी सोते हैं  

परहित सेवा से लुत्फ़ मिले और साथ में पाप धुलें  
रहते मुगालते में वो, जो गंगा नहा पाप धोते हैं  

ऊँगली एक उठाते हो जब, तीन घूरती खुद को "श्री" 
हश्र न समझें इल्ज़ामों का, उनके मदरसे थोते हैं  

श्रीप्रकाश शुक्ल 
बहर है :- २१२२  २१२२  २१२२   २१२  
 
आजकल इंसान के मन, डाह कितना पल रहा  
देखकर चोटी किसी की  बे सबब ही जल रहा  


साथियो गर चाहते हो,जिन्दगी पाये सुकूँ  
साथ लेलो उस बशर को समय जिसको छल रहा 
           
तीर सारे नफ़रतों के,हों विफल मुसकान से 
ईंट का पत्थर से बदला क्या कभी भी हल रहा 

बात अपनी ही चलाने का जनूँ ऐसा चढ़ा   
इल्म खो बैठे तरीका-ए-ज़िरह कितना खल रहा  

जानता "श्री" मुश्किलों की धूप झुलसाती है मन  
लेपकर मरहम सबर की हर सफल इंसा च रहा  

 श्रीप्रकाश शुक्ल  

जब भी मुझे  कोई मुहब्बत से बुलाता है 
साथ देने को थोड़े ही न, खेमे में मिलाता है 

मैंने तिरे खतूत को, क्यूं कर जला दिया 
आता है ख्याल जब ये, धुंआ दिल में उठाता है 

ख्यालातों की उतरन, मुझे अच्छी नहीं लगती 
बुज़ुर्ग हो चला हूँ अब,  अपनी ही सुनाता हूँ 

सड़क बीच हो खड़े, गाते हो नजराना क्यूं 
रिझाना आशिकों को महफ़िल में ही सुहाता है   

दुनियाँ बदल गयी है, इस कदर से अब "श्री "
सोचता हूँ होगा आगे क्या, तो बस रोना आता है 

खतूत : पुराने ख़त 

श्रीप्रकाश शुक्ल 

धरती के खुले पत्र पर

मात्र चार सौ वर्ष पूर्व ही, 
हम सोने की चिड़िया थे
जड़ चेतन का साथ अनूठा, 
तारतम्य सब बढ़िया थे 

शिखर वादियाँ नदी सरोवर,
विस्तृत फैले बागान अनोखे 
मुठिया थामे गीत कृषक के 
शांति समृद्धि के रहे झरोखे 

अति आत्मीया धरणि हमारी, 
प्रेरणा स्रोत और जीवनदायी 
आँचल भरे संपदा अगणित,  
आधार शक्ति पावन सुखदायी 

इस धरती के खुले पत्र पर, 
हम अनजाने क्या लिख बैठे 
संकीर्ण सोच  के बसीभूत, 
प्राणदा प्रकृति से बरबस ऐंठे 

सुख की असीम चाहत में हम,
दोहन करते रहे प्रकृति का
कभी न सोचा फल क्या होगा,
विघटन और उत्खनन अति का 

आज प्रकृति रूठी है हम से, 
धूल धूसरित सज्जा साज़ 
क्षम्य नहीं क्षण भर की देरी 
चिंतन कर बदलें अंदाज़  

श्रीप्रकाश शुक्ल 
गंगे तुम को शत शत प्रणाम 

जटा छोड़ तुम भोलेश्वर की उतर धरा पर आई 
साठ सहस्त्र सगर पूतों की तुम थी जीवनदायी  
जीवन के अंतिम पल में तेरी एक बूँद मुंह पाकर 
पाते रहे स्वर्ग का आश्रय अनगिन पाप मिटाकर 
मन हर्षित होजाता है पाकर तेरे दर्शन अभिराम 
गंगे तुम को शत शत प्रणाम 

उद्गम से सागर तक तूने पथ ऐसा अपनाया 
आँचल बसे करोड़ों जन ने जीवन संबल पाया 
पर कृतघ्न हम ऐसे भारी भूल गये तेरा संमान 
फेंक कालिमा आँचल में करते रहे सदा अपमान   
माँ तेरा अपराधी हूँ मैं त्राहि माम् माँ त्राहि माम 
गंगे तुम को शत शत प्रणाम 

 श्रीप्रकाश शुक्ल