Thursday 11 July 2013

प्रेयसि  प्रकृति पलकों रहे

बादल फटा, धरती फटी, दर्द का दरिया बहा 
माँ की सूनी गोद रोई, फिर भी तू क्यों चुप रहा 

मानता हूँ भूल कुछ, हमसे भुलावे में हुयी
पर रोज़ हम मिलते रहे, तूने कभी कुछ कहा 

तू जानता अच्छी तरह, दिल में हमारे तू बसा 
तेरी खातिर इस जहाँ में, मैंने क्या क्या ना सहा 

बात अब मेरी नहीं, मात्र तेरी शान की है  
रोकी अब जो त्रासदीसब लगायें कहकहा 

सीख ऐसे हादसे से, ले चुका है आज " श्री"
प्रेयसि पृकृति पलकों रहे,  ये मेरा बादा रहा 


श्रीप्रकाश शुक्ल 
फिर से धूप  धरा पर उतरी 

बिना मीत मन रीती गगरी  
तृषित रहे जीवन की डगरी 


बिन बोले सखि चले गए वो
कसक उठी, बेकदरी अखरी 

वर्षा गयी, शरद ऋतु आई
पिया मिलन की चाहत उभरी 

आँखें पथराईबाट जोहते,
आँगन में मायूसी पसरी  

कटती नहीं सांझ और रातें,
युग युग सी  बीते दोपहरी 

हर-चन्द सब सुख साथ रहे
पिय की याद पल भर बिसरी 

पिय आये जब मेरी नगरी ,
फिर से धूप  धरा पर उतरी 

धूप तपे, या बादल बरसे ,
पिय का साथ यक़ीनी छतरी 

बिना मीत क्या जीना है "श्री "  
बोझ लगे जिंदगानी सगरी 

श्रीप्रकाश शुक्ल 


फिर से धूप  धरा पर उतरी 

मन की चादर के धागे सब उलझ गए हैं मैं में बिंधकर   
   सुलझाने के  हर प्रयास पर  फिरता पानी  रह रह कर   
       कुछ उलझे लोलुपता बसकुछ शोहरत की चाह भरे मन  
            जब तक ज़हर द्वेष का दिल में, ढाई अक्षर कैसे घोलूँ   
             फिर से  धूप  धरा पर उतरी, कैसे बोलूँ 

सारा जग संताप ग्रसित है, अविश्वास की अटल  दिवारें   
     चहुँ दिश गूँज रहे पीड़ित स्वर, ह्रदय भेद्तीं करुण पुकारें 
          कैसे बनूँ विकल बादल जो, कर ले वरण रूप शशिधर का  
             कैसे भार हरूं हर मन का, कैसे द्वार आस के खोलूँ  
             फिर से धूप  धरा पर उतरी ,कैसे बोलूँ 

लेकिन यह भी अटल सत्य है, उम्र तिमिर की भी सीमित है  
     बदलेंगे हालात देश केजनगण शक्ति अपरिमित है  
          तम की निशा विदाई लेगीअरुण रश्मियाँ फिर चमकेंगीँ  
               पत्थर सभी पलटने होंगे ,यह पल नहीं चैन से सो लूं  
                फिर से धूप  धरा पर उतरी, कैसे बोलूँ 


श्रीप्रकाश  शुक्ल 
तेरे आने का असर है शायद 

दादुरों  ने एक स्वर में, फिर से पंचम स्वर उचारा   
  चातकी ने टक टकी भर, आस ले, नभ को निहारा  
      तेरे आने का असर है शायद, कि मन  पूछता है  
          साथिया क्यों जा रहा, छोड़ कर के ये नज़ारा  

वादियों में आज फिर से,  कोपलें मुस्का उठी हैं 
    भ्रमरियाँ मदहोश हो, मधुपान में  जी भर जुटीं हैं  
        तेरे आने का असर शायद, कि निधियां बादलों की 
          सर्वस्व अर्पण कामना से,  भूमि पर खुद ही लुटीं हैं  

तेरी बिदाई के समय, सबने कहा था अश्रु भर 
    लौट कर आना तुरत, होंगे प्रतीक्षित वर्ष भर
        पश्चिमी दक्षिण दिशा से आप आये धन्य हैं हम 
             आज सारे नृत्यमय हैं झील, सागर, सरि, सरोवर 


श्रीप्रकाश शुक्ल 
तेरे आने का  है असर  शायद 
  
खुदगरज़  ख्यालात ने, तोड़ी है कमर शायद  
मुश्किल है सलीके से हो,  जिन्दगी बसर शायद  

मेरी ही कोई ख़ता, सीने  से लगाई  होगी 
करता नहीं वो  याद अब,  जो उस कदर शायद  

सुलगती धरती से उठी हैसोंधी सी महक  
लगता है तेरे आने का  है असर  शायद 

जिन्दगी की डोरी अभी और खींच सकते थे  
यक़ीन तेरे आंने का होता अगर शायद  

फरेबों में साथ देना  मंज़ूर  था  ना  "श्री" को 
हर बात पै  वो  इस से  खफा आये  नज़र शायद  



 श्रीप्रकाश शुक्ल