Tuesday 23 April 2013


सब समय तुम्ही ले लेती हो

सब समय तुम्ही ले लेती हो ,
कैसे संभव हो कोई काम 

प्राची में बन तुम अरुण किरण ,
मेरी खिडकी के द्वार खोल ,
छूती जब आ मेरे कपोल ,
मैं सेज छोड़ उठ जाता हूँ 
ले प्राण तुम्हारा मधुर नाम 
कैसे संभव हो कोई काम 

अध्ययन को पुस्तक खोलूँ, 
तो शब्द शब्द धुंधले होते, 
ना जाने क्यों विकल नयन, 
अपनी चेतन प्रज्ञा खोते ,
बस प्रष्ट प्रष्ट पर दिखती हो  
गुंजन करती स्वर ललाम  
कैसे संभव हो कोई काम  

ध्यान अर्थ जब बैठूं मैं ,
तुम सन्मुख आ जाती हो 
नभ में छिटकी बदली सी, 
बस अंतस में छा जाती हो 
मन्त्र मुग्ध मैं खो जाता हूँ 
चित्र सजा मोहक अभिराम 
कैसे संभव हो कोई काम 

सब समय तुम्ही ले लेती हो 
कैसे संभव हो कोई काम 

श्रीप्रकाश शुक्ल 

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