Tuesday 4 September 2012


बिखरी सी मुस्कान

आलस्य भरे वो नयन, स्वप्न मुकुलित हो खुलते, मुंदते
अधखुले अधर, इक बिखरी सी मुस्कान बिछा अनुपम सजते 
कौन सो रहा शयन कक्ष में,  घुटने चिबुक लगाये  
स्वर्ग लोक की सारी निधि, न्योछावर जिस पर हो जाये 

भी अभी किलकारी भरता, रहा दौड़ता सारे घर में 
सीडीं चढ़ना , तुरत उतरना, खेल सर्व प्रिय था उर में 
लपक दौड़ जाता बगिया में, झिल मिल करते खद्योत पकड़ता 
बिखरी सी मुस्कान उभरती, जब भी हाथों एक ना पड़ता 

बाल सुलभ करतूतों  ने , जीवन में  दिशा  नई भर दी 
आया लौट स्वयं  का वचपन, बढती बय  छोटी कर दी
अनुकम्पा  अगाध उस प्रभु की है , भेजा ऐसा सुघड़ खिलौना 
जीवन के संताप हर लिए , आनंदित  दिल का हर कोना 

श्रीप्रकाश शुक्ल 

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