Tuesday 22 May 2012

मुक्तिका 001


डूबता जब भी सितारा 


गर्दिशें आ घेर लेतीं डूबता जब भी सितारा 
डूबती मझधार नौका रूठ जाता हर किनारा 

जिन्दगी इक़ मंच है और  कठपुतली सभी ,
चाहता जैसे नचाता, जगत का वो सृजनहारा  

आंधियां तूफ़ान आते, बाहुबल को तौलने,
विश्वास ले जो डट गया उससे चला कोई ना चारा 

धर्म ओंर रंग भेद के फुफकारते विषधर विषैले ,
वो बना अहिजित मुरारी जिसने कुचल इनको नकारा

था निहायत ही असंभव खाईयों को लांघ जाना 
पर खुदाया की महर से चिर गया तम तोम सारा 

श्रीप्रकाश शुक्ल 

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Sunday 20 May 2012

मुक्तिका 002
 
बुझा हुआ दिल नहीं संभलता मुझे पता है
गढ़ी फांस का दर्द  ना टलता मुझे पता है

दान दक्षिणा देते हैं कितने ही पर ,
बच्चा अनाथ कैसे पलता मुझे पता है

झांसा देकर लूट रहे भोले भालों को,
दर्द भूख का कैसे खलता मुझे पता है

झूठ  गवाही देते हैं वो जाकर रोज़ कचहरी में
लेना देना कैसे चलता मुझे पता है

तपना बहुत जरूरी है खुद को खरा बनाने को
सोना गहनों में कैसे ढलता मुझे पता है 


श्रीप्रकाश शुक्ल
मुक्तिका ००३

 ये जो सच है  क्या वो सच है ?आज  चर्चा चल रही है 
 क्यों ना बोलूँ साफ़ मैं,  ख़ामोशी खुद की खल  रही है 

शहर के या गाँव के हों, पीटते सब लोग सर,  
स्वार्थपरता की  सियासत हर किसी को छल रही है 

पेट खाली ही रहा मेहनत मशक्कत बाद भी, 
जाल डालें,फितरती जो, दाल उनकी गल रही हैं 

संच है क्या और  झूठ क्या है, क्या ज़रुरत जानने की,
ख्वाहिश-ए-शोहरत बुलंदी, भूख  बनकर जल  रही  है 

ध्रुव सत्य है केवल यही, आया यहाँ जो, जाएगा,
किसलिए अमरत्व की फिर लालशा दिल पल रही है 

श्रीप्रकाश शुक्ल 
अनछुई सांझ को अचानक 


अनगिन सांझें बीत  गयीं, दुःख दर्द भरे पल जीते जीते  
  बिछड़े प्रिय की सुधि ना मिली, बीत गये दिन दृग जल पीते 
      अनछुई सांझ को आज  अचानक, उनकी इक़ पाती आई
            बुझे हुए तन  मन  में सहसा जाग उठी फिर से  तरुणाई 

थी मौसम की प्रथम बृष्टि सी, प्रीति भरी वो पाती 
      सरस  हुआ  रूखा उर आँगन,  शितलाई  तपती छाती  
           नैराश्य भरे जीवन के पल में, लगा, लौट प्रत्याशा आई 
               जैसे झुलस रही धरती को, चूमें घटा,  बहे पुरवाई 

अनमोल अक्षरों में सिमटी थी, केवल नयनों की भाषा 
   झलक रही वो पीड़ा जिसमें,  नश्वर  रही  मिलन की आशा 
      अभिशापित पलकों में छलके, प्रेम अश्रु रुक गए किनारे 
         मछली सा मन तड़प उठा, कर याद रस-अयन नयन दुलारे 

वो सांझ अनछुई घड़ियों की, अब  रह रह कर सुधि में आती 
   तन छूकर कैसे रही अनछुई, ये गुत्थी सुलझ नहीं पाती 
      स्नेह  सिक्त अभिव्यक्ति भरे, पाती, मन की प्यास बढाती 
              सूखा रहे तृषित मन प्रतिपल, जैसे घृत बिन दीपक  बाती  

श्रीप्रकाश शुक्ल 
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