Saturday 28 April 2012

आखिर ये हठधर्मी क्यों ?


भागीरथी प्रयासों से, पोषित कर एहसासों को,
  जीवन में संतुलन हेतु , मानव संबध बनाते हैं
      पर औचित्य ताक पर रख, दुराग्रह के बसीभूत,
        किसलय के ये मृदुल पत्र, भेंट अहम् की चढ़ जाते हैं

चूर चूर हो जाते सपने , टूट गए हों दर्पण ज्यों,
आखिर ये हठधर्मी क्यों ?


भूल चूक हर जीवन की, निश्छल सहज प्रवृत्ति है,
   पर यथासमय संशोधन की, मानव में अद्भुत शक्ति है
      इसे भूलकर हममें से कुछ, सहज पालते वैमनस्य,
         आत्म प्रदर्शन की चाहत में, अड़ियल रुख अपनाते हैं


आतंक पौढ जाता समाज में, तानाशाई शासन ज्यों
आखिर ये हठधर्मी क्यों ?


आदिकाल से ही भूतल पर, हठधर्मिता रही हावी ,
  ज्ञानी भी खो वैठे प्रज्ञा, इसके चंगुल में फंसकर
    विश्वामित्र सरीखे मुनिवर, भूल प्रकृति की सीमाएं
      पाने बैठे लक्ष्य असंभव जो थे, अस्वाभाविक दुस्कर


औंधे मुंह अधर में लटके, दिखते नहीं त्रिशंकु क्यों
आखिर ये हठधर्मी क्यों ?


क्या दुर्योधन को पार्थ कृष्ण का पौरुष ज्ञात नहीं था
  या सबक राजधर्मिता का गुरुजन से पढ़ा नहीं था
     ये तो सब था ही लेकिन, था नशा शक्ति का चढ़ा हुआ
        था नियति हेतु दुर्मेधा का पर्दा आँखों पर पड़ा हुआ


निश्चित ही विनाशकाले, हो जाती भृष्ट सुबुद्धि ज्यों
आखिर ये हठधर्मी क्यों ?


दम्भ्जनित मत आग्रह के, परिणाम सदा ही रहे दुखद
  गृहयुद्ध छिड़े, विद्ध्वंस हुए, जीना दूभर हो गया निरापद
     फिर भी कुछ ना सीख मिली, अंतस में हम ना झांक सके
        आसुरी प्रवत्तियों से आवृत, जीवन का मूल्य ना आँक सके


अविवेकपूर्ण स्थिति से उपजी, ये सारहीन सरगर्मी क्यों
आखिर ये हठधर्मी क्यों ?


श्रीप्रकाश शुक्ल


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