Monday 16 January 2012


सुधियाँ अतीत कीं

खुली आज स्मृति मंजूषा, बिखर गए कुछ मीठे पल
  कुलबुला उठीं सुधियाँ अतीत की, जाग उठे भूले बिसरे कल
    कितना अद्भुत ? स्मृति मणियाँ स्वतः सूत्र बिंध जातीं हैं
       मणि मुक्ता की लड़ियों जैसी, मनस पटल पर छा जातीं हैं


इन लड़ियों में क्रमबद्ध गुथीं, जीवन की अनगिन सौगातें
  नटखट वचपन, अल्हड यौवन, प्रिय की खट्टी मीठी बातें
     मूल्य हनन, अस्मिता दहन, जीवन की विविध विषमताएं
        असमंजस के पल, संकल्प अटल, सुलझी, उलझी अटपट राहें


जीवन के भोगे, ये पल, बहुधा, हम ओझल ही पाते हैं
  पर कतिपय परिदृश्य, संदेशे, ढूंढ इन्हें सन्मुख लाते हैं
    यादों के आलम्बन ये, अगुआ बन, जीवन दिकदर्शित करते हैं
       उलझन सुलझा, अटकाव हटा, जीवन में खुशियाँ भरते हैं

श्रीप्रकाश शुक्ल
खुली आज स्मृति मंजूषा


खुली आज स्मृति मंजूषा, बिखर गए कुछ मीठे पल
  थिरक उठी छाया अतीत की, सुधियों में आये बीते कल
   संचित यादों के झुरमुट में, आतीं उभर मिलन की बातें
      बेकल हो उठता मन मयूर, देतीं चुभन चांदनी रातें


वासंती साड़ी में लिपटे, हरश्रंगार पुष्प के बूटे,
  तन्वंगी काया को घेरे , जैसे रति के चित्र अनूठे
     मृदु मुस्कान अधर धर, तुम कलिका सी खिलती थी
        तन मन पुलक सिहर उठता, द्रुतगति श्वासें चलतीं थी

अनुरंजित वो नयन तुम्हारे, छलकते मदिरा कल कल
खुली आज स्मृति मंजूषा, बिखर गए कुछ मीठे पल


स्पर्श उँगलियों का पाकर, अनुप्राणित वो पत्र तुम्हारे
  जब भी पाता, रख लेता था मंजूषा में एक किनारे
    फिर चुपके से छुपकर पढता, नीरवता में एक एक कर
      शब्द चित्र में लिपटी तुम, बस जाती पलकों के अन्दर


शब्दों की सामर्थ न जब, मन की प्यास बुझा पाती
   प्रकृति बधू को आभूषित कर, पत्रांचल में सहज बिठाती
     हरी वादियों में सिमटा, वो छोटा सा मिटटी का घर
       युगल दीप की एक वर्तिका, गुंजित करती मन के स्वर


अब तक संभाल कर रक्खे वो, आशाएं भरे अपेक्षित पल
खुली आज स्मृति मंजूषा, बिखर गए कुछ मीठे पल




श्रीप्रकाश शुक्ल
तेल ना तेल की धार, राधा क्यों नाची ?



ना था तेल, न धार तेल की, फिर भी राधा क्यों नाची
  राधा के मन बसो कन्हैया, प्रीति रही अविचल साँची
     राधा जो वृषभानु दुलारी, प्रिय उन्मत्ता, अनुरागी
       कान्हा की छवि धार ह्रदय में, चाह मिलन की जागी

थिरक उठे पग वंसी धुन सुन, अनुपम रास रचायो
    जग की सारी निधि ठुकराई, कृष्ण प्रेम रस भायो
        संग में नाचे ग्वाल बाल सब, वृन्दावन हरषायो
         दिव्य अलौकिक प्रेम अमिय अस, अनुपम सुख दरशायो


राधेय प्रेम उत्कट अकाम, बाध्य करे राधा मन को
   मन मयूर, होकर विभोर, नाच उठे आराध्य मनन को
      भाव समर्पण ह्रदय समाहित, भक्ति प्रेम की कविता सी
      अद्भुत प्रेम पुलक सहरन, पलकों में बहती सरिता सी

राधा नाची, हो बसीभूत, अपने प्रिय के शाश्वत रंग में
   जो नचा रहा सारी जगती को, जग हिताय अपने ढंग में
      राधा कृष्ण प्रेम की महिमा, परम दिव्यता भरती मन में
         निष्काम प्रेम की ऐसी गरिमा, कहीं नहीं परिलक्षित जग मे

बदल गयी अब रीति जगत की, राधा अब भी नाचें
    पर कितना भंडार, किधर को धार तेल की, जाचें
     , दुराचार का पहन घाघरा, लोभ की माला डाले
        अपना नाच नचायें सब को, सत्ता हाथ संभाले


श्रीप्रकाश शुक्ल



घर में उजाला सी लगें ये बेटियाँ


प्यार भर अपनत्व से, सींच सम्बन्ध सभी,
     हर पत्थरों के मकाँ को, घर बनाती बेटियां
       बादल उदासी के छिटक, आ घिरें जब भी कभी,
          खिलखिलाती धूप सी, जाती विखर ये बेटियां
              घर में उजाला-सी लगें ये बेटियाँ


घर पिता का हो, या कि हो ससुराल का,
    दोनों कुल की बान का बीड़ा उठाती बेटियाँ
       त्याग की प्रतिमूर्ति सी, सद्भाव का संकल्प ले,
            सर्वस्व अपना दांव पर हंस हंस लगाती बेटियाँ
               घर में उजाला - सी लगें ये बेटियाँ


क्षेत्र कोई भी अछूता, अब रहा इनसे नहीं,
   निज कल्पना साकार कर, अम्बर खगारें बेटियाँ
      प्रश्न हो जब देश की रक्षा सुरक्षा अस्मिता का,
           बन कपाली युद्ध में, खप्पर संवारें बेटियां
               घर में उजाला सी लगें ये बेटियाँ

शौर्य सुषुमा से सजीं ,शांत सुरसरि की लहर,
   देश की बहुमूल्य - सी, जागीर हैं ये बेटियां
      देश उद्बोधित समूचा, जानते हैं हम सभी,
         देश की तस्वीर और तकदीर हैं ये बेटियां
              घर में उजाला -सी लगें ये बेटियाँ


श्रीप्रकाश शुक्ल