Thursday 13 December 2012


इस मिटटी के यहसान चुकाना मुश्किल  है

भारत की इस मिटटी के, यहसान चुकाना मुश्किल है
कितना क्या पाया हमने, ये लिखपाना मुश्किल है    

कर्तव्य,धर्म,नैतिकता के संस्कार घुट्टी में पीकर 
शांति हेतु,जनता हित में, बेशुमार दूभर दुःख सहकर      
सिंहासन तज बने सारथी, बन बन भटके रूखा खाए 
वांछित अंकुश लोकपाल के, राजाओं ने स्वयं लगाए 

राज धर्म के इन मूल्यों को, सहज निभाना मुश्किल है 
भारत की इस मिटटी के, यहसान चुकाना मुश्किल है 

देश प्रेम और सदाचार की, नीति कोई भारत से सीखे 
भरे पड़े इसकी रजकण में, झाँसी रानी, शिवा सरीखे 
दुष्टों को दण्डित करने पर, सदाचार हरगिज़ न भूले 
न्यायोचित अधिकार दिए, इसके पहले कसाब झूले 

ऐसी, उर्वर बलिदानी मिटटी, और कहीं पाना मुश्किल है 
भारत की इस मिटटी के यहसान चुकाना मुश्किल है 

इस भूमिखंड ने अनगिन चिन्तक,वैज्ञानिक उपजाए हैं
यंत्रवेत्ता,डाक्टर,कार्मिक, सारे 
 जग पर छाये है 
इनके बलबूते मेहनत पर, सारा जग रोटी खाता है 
सच पूछो तो भारत की रज, जग की भाग्य विधाता है 
माल्यार्पण कर शब्दों की, स्तुति रच,गाना मुश्किल है 
भारत की इस मिटटी के, यहसान चुकाना मुश्किल है 

श्रीप्रकाश शुक्ल 


धन्यवाद स्वीकार कीजिए 

कौन विश्वकर्मा जगती का, किसने नदी पहाड़ बनाये   
   किसने रचे चाँद और सूरज, किसने नभ तारे चमकाये  
      अस्थि मांस के पिंजर भीतर, किसने भरे भाव अलबेले 
         प्रकृति सखी को किसने बोला, पुरुष गोद में हरदम खेले 

इस भूतल पर मात्र प्रकृति ही, एक आवरण, ऐसी कृति है  
  जिसका सृजन हुआ मानव हित, हर अवयव सेवा अर्पित है 
    क्या है कोई शक्ति अलौकिक, जिसने रचना की मानव की 
        तदोपरांत की कुदरत रचना,जो सहचरी बनी जीवन की 

प्रकृति पुरुष की उद्गम गाथा, मानव बुद्धि चकित करती है 
   और प्रकृति की संचालन विधि, भक्ति भाव मन में भरती है  
       विज्ञानं,ज्ञान के अर्थ समूचे, समझ सके न भेद जगत का 
            पुरुष और मानव का अंतर, अंतर  ईश्वर, शाश्वत सत का 

ज्ञात नहीं वो कौन, कहाँ है, जिसने सारा चक्र चलाया 
    हारे थके मनीषी सारे, पर यथार्थ कुछ समझ न आया  
        अपनी प्रवृत्ति अपने स्वरुप का, कुछ तो भी आभास दीजिये  
            रोम रोम आभार पूर्ण प्रभु, धन्यवाद स्वीकार कीजिये 

श्रीप्रकाश शुक्ल 

Wednesday 14 November 2012


दीप के पर्व पर जब जलें- दीप, ऐसे जलें 

दीप के पर्व पर जब जलें- दीप, ऐसे जलें 
कि हो अड़िग सकल्प,निष्ठा, कलुष तम से जूझ पायें
इरादे, कर गुजरने के कभी दिल में पलें, ऐसे पलें
कि हर साँस की उच्छवास से, अन्याय के दिल काँप जायें 

दीप के पर्व पर जब जलें -दीप, ऐसे जलें 
कि रश्मियाँ उनकी छिटक सारी धरा को जगमगायें  
प्रीति प्रादुर्भाव हो, मन में फलें सुविचार, ऐसे फलें  
शमन हों आक्रोशलिप्सा, छिन्न हों कटु भावनायें  
दीप देता है संदेशा जल सको, तो यों जलो  
निज स्वार्थ, बाती बन जले, परमार्थ घृत बन, लौ बढायें 
और ढलना हो कभी फौलाद में, तो यों ढलो 
लाखों बबंडर सर पे टूटें, तो भी सपने बुझ न  पायें  

दीप पाता है प्रतिष्ठा कर्म से, न कि माप से 
क्यों न हम अनुकरण कर, अस्तित्व की बाजी लगायें 
और जो झुलसे, जले हैं, दीनता के ताप से 
आस की  दे इक किरण, अभिकाम जीने की जगायें  

  श्रीप्रकाश शुक्ल 


सियोना 

शरद पूर्णिमा की प्रातः को
                   छिटक चांदनी भू पर आई  
राहुल अमीशा के आँगन में 
                   धूप गुनगुनी  सी आ छाई  
साईशा  की नन्हीं बाहों में 
                   आ टपका इक सुघढ़ खिलौना 
अन्नू आयुष और माही ने 
                    पायी छुटकी बहिन सियोना 
नाना नानी का खुशियों से 
                   भरा आज दिल का हर कोना 
दादा दादी बाट जोहते 
                    जल्दी  ही मिलने जायेंगे 
जो कुछ अच्छा सीखा अब तक 
                     सभी भेंट कर आयेगें  
                      
दादा -दादी 



Tuesday 6 November 2012

जैसे  हो तस्वीर भीत पर 

मंहगाई उफान लेती, पर अस्मिता आज भी सस्ती है
मेरा देश महान पर यहाँ, चोरों की खासी बसती है

गाँधी जी के तीनो बन्दर बगुला भगत बने बैठे,
खुल्लमखुल्ला बटें रेवडीं,अपनी, अपनों की मस्ती है

सत्ता के गलियारे में, ऐसे बढ़ चढ़ काम हो रहे
जिनका सिर्फ  नाम सुनते,संसद की धरती धंसती है

इंसान  टंगा है बेबस सा  जैसे  हो  तस्वीर भीत पर
उसकी ये बेबसी, बेबजह,  सबको नागिन सी डसती है

सोचा हालात सुधर जायेंगे, धैर्य नहीं छोड़ेगा "श्री"
पर कैसे कोई मुंह सीँ ले, जब जान देश की फंसती है 



श्रीप्रकाश शुक्ल

विजयदशमी विजय पर्व है ,विजयी कौन हुआ है लेकिन

विजयदशमी विजय पर्व है ,विजयी कौन हुआ है लेकिन
  विजय सत्य की हुयी अंततः, साक्षी काल दिवस अनगिन  
     सच है समय समय भारत में, आसुरी प्रवितियाँ उमड़ पडीं 
         तभी महा मानव ने उठकर, कर निदान, नीतियाँ गढ़ीं   
लेकिन तत्व कलुषता के उग, रहे पनपते रक्तबीज से
   मानवता कराह उट्ठी, हो व्यथित, रोज की असह खीज से 
      आज प्रताड़ित, घने धुएँ में, जीते हैं नित मर मर कर
         क्योंकि सत्ता के  साये में, सुख की छांह न पायी क्षण भर

मनमोहन की बंशी अब, बजती नहीं सुनिश्चित सुर में 
   जिसकी अशुद्धि प्रतिध्वनि उठकर, गूँज रहीं सांसद उर में 
      मति भ्रमित, सभी नायक दिखते, निर्णय होते सभी अहितकर 
          या फिर लूट रहे जनगण को, जानबूझ कर ,बल छलकर     


मौन व्यथा जग गयी आज, इक जलधि ज्वार सी 
    हारी बाज़ी पा लेने की होड़ बढ़ी बढवा बयार सी 
       तरुणाई की आँखों में सुख सपनो के अंकुर दिखते
         परिवर्तित 
होगी शीघ्र व्यवस्था,नहीं देर अब दिन फिरते  

श्रीप्रकाश शुक्ल 

विजयादशमी  विजय  पर्व है, विजयी कौन हुआ है लेकिन 
 
विजय, दु:राग्रह, दु:साहस की है, मनमानी पर अड़े हुए हैं 
शकुनि से बढ़कर पारंगत, यद्यपि विदेश में पढ़े हुए हैं 
 
 लाखों की चोरी की है पर, लगती चोरी माखन की, 
सैकड़ों, हजारों रोज पचाकर, वंशी माधव बड़े हुए हैं 
 
विजयादशमी विजय पर्व है, विजयी कौन हुआ है लेकिन  
रावण जैसे शीश कटे भी, जीवित हो उठ खड़े हुए हैं 
 
संस्कार सब खाक, क्षार हैं, चुल्लू भर पानी में डूबे  
शर्म, हया की बूँद टिके ना, ऐसे चिकने  घड़े हुए हैं
 
साधन एक वही दिखता "श्री,जिसको बापू मना कर गए 
कैसे इन्हें सुधारें हम सब, असमंजस में पड़े हुए हैं 
 
श्रीप्रकाश शुक्ल 

कब रह पाया दुःख अनगाया 

पुष्प पंखुरियों  सी म्रदु घड़ियाँ, समय धार में बह जातीं हैं 
शेष न कुछ रहता जीवन में,  केवल सुधियाँ रह जातीं हैं 
सुख-दुःख, अश्रु, हास, आलिंगन, इन सुधियों में रहा समाया 
जब अनुभूति विकल हो रोई, मचला दर्द,  कंठ तक आया 
                                 कब रह पाया दुःख अनगाया 

समबन्ध , प्रकृति, मानव मन का, रहा चिरंतन, गूढ़, सनातन 
समझ सका संकेत न मानव, देती रही प्रकृति जो  निशिदिन 
ऋतु बदली, मानव मन तडफा, विस्मृति सन्देश  उभर आया 
भुला सका न जिसे  कभी मन, शब्दों में बाँध गीत में  लाया  
                                 कब रह पाया दुःख अनगाया 

साँसों में सिमटी पीड़ा,  बरबस आँखों में भर आती है 
सिसकन उमड़ नहीं पातीं,  सहसा गीतों में ढल जाती है 
कितना भी धीरज, संयम हो, ये प्रवाह, मन रोक न पाया 
रह पायी ना मौन भावना,  दर्द ह्रदय का जब गहराया 
                               कब रह पाया दुःख अनगाया 
 
श्रीप्रकाश  शुक्ल 
मुझसे जितना दूर हुए तुम 

मुझसे जितना दूर हुए तुम, उतने  धड़कन के पास आगये 
समय पखेरू जितने  दूर गए,सांसों में उतना तुम समा गए 
नहीं भूल पाया अब तक मैं, मुरझाई सी वो चितवन,
पलकों में जब अश्रु भरे थे, करुणा भरा थका था तन मन,
पुरबा के झोंकों से जब भी, दिखा कोई उड़ता आँचल 
लगा यही तुम लौट दुबारा पास हमारे आ गए
अरी सुमधुरा, हम दोनों की दूरी भी क्या दूरी है  
लेकिन हाँ, तन की नहीं मगर मन की मजबूरी है 
प्रणय चाहता नहीं मिलन, बसा रहे बस चित्र  ह्रदय में
प्राणों की इस अमरबेल को,, केवल इतना ही जरूरी है 
धीरे धीरे बिरह आग में ,सुख स्वप्न सभी जल जाएंगे 
ध्रुव निश्चित है बीते दिन, अब लौट नहीं आ पायेंगे  
किन्तु परिस्थितियों ने जो, असमय तोडा सूत्र मिलन का 
गीत व्यथा के मेरे ये, संभवतः उसे जोड़ लायेंगे 

श्रीप्रकाश शुक्ल 

Tuesday 4 September 2012


स्वर्ण-श्रृंखला के बंधन में

स्वर्ण श्रंखला के बंधन में, जकड़े मात्र प्रलोभन सब को 
जैसे कूकर, घट के मुंह में, ग्रीवा डाल, ना छोड़े गुड को 
मोह,सुरक्षा,सुख साधन का,दिन प्रतिदिन गहराता जाता 
अनुचित उचित बिना सोचे,हर एक परिग्रह में जुट जाता

इतिहास साक्षी है ये बंधनरचता रहा अनेकों कृतियाँ  
इसकी उर्बरा शक्ति से उपजीं,अहंकारमददर्प प्रवृत्तियां
इन आसुरी प्रवृत्तियों ने कीबुद्धी भ्रमितआस्था नश्वर
बंधक लगा समझने खुद को जगत रचियता से भी बढ़कर

अतिशय धन पाकर जीवन का,सच्चा सुख जाता है छिन
मदहोसी दे, वो दर्द मिटाता, भरता जो खाली जीवन
स्वेच्छा से बंधना चाहो, तो बंधो प्यार के बंधन में
ओरों को दे प्यार, सही उद्देश्य भरो अपने जीवन में 

प्यार एक स्थिति है जिसमें, औरों का सुख, खुद का सुख है
जीवन आनंदातिरेक करता, वाकी तृष्णा दुःख ही दुःख है
निर्भरता, वैभव सुख साधन पर, सदा रही दुःख दायी है
स्वर्ण श्रंखला के बंधन में बंध, किसे शांति मिल पायी है
श्रीप्रकाश शुक्ल
Mahipal Singh Tomar
आ.श्री श्री जी , यह वाक्यांश-पूर्ति ,तमाम प्रेरक तत्वों को समाहित किये हुए बड...
Aug 30 (6 days ago)

बिखरी सी मुस्कान

आलस्य भरे वो नयन, स्वप्न मुकुलित हो खुलते, मुंदते
अधखुले अधर, इक बिखरी सी मुस्कान बिछा अनुपम सजते 
कौन सो रहा शयन कक्ष में,  घुटने चिबुक लगाये  
स्वर्ग लोक की सारी निधि, न्योछावर जिस पर हो जाये 

भी अभी किलकारी भरता, रहा दौड़ता सारे घर में 
सीडीं चढ़ना , तुरत उतरना, खेल सर्व प्रिय था उर में 
लपक दौड़ जाता बगिया में, झिल मिल करते खद्योत पकड़ता 
बिखरी सी मुस्कान उभरती, जब भी हाथों एक ना पड़ता 

बाल सुलभ करतूतों  ने , जीवन में  दिशा  नई भर दी 
आया लौट स्वयं  का वचपन, बढती बय  छोटी कर दी
अनुकम्पा  अगाध उस प्रभु की है , भेजा ऐसा सुघड़ खिलौना 
जीवन के संताप हर लिए , आनंदित  दिल का हर कोना 

श्रीप्रकाश शुक्ल 

ऐसा गीत सुनाया कर

सुख ना रहेगा सदा साथ मेंव्यर्थ ना तू भरमाया कर,
जीवन में सुख भी है दुःख भीदोनों गले लगाया कर  I

गीत प्यार के सदा सुहानेलिख लिख कर तू रखता जा,
पर जो गीत आँख छलका दे ,ऐसा गीत सुनाया कर

आ धेरें विपदा के बादलभरे निराशा अरमानों में गर,
नहीं टूटनाना घबरानापैर जमा डट जाया कर  I

मानव जीवन बेशक़ीमतीव्यर्थ ना इसको जाया कर,
जब भी घिरे अँधेरा बाहरअंतस ज्योति जगाया कर  I

यह दुनिया संघर्ष भूमि है,पग पग पर अवरोध अनेकों,
निराकरण के लिए सतत तूकर्म योग अपनाया कर I

श्रीप्रकाश शुक्ल 
छवि का पनघट आज बना 
नहीं निमंत्रण कोई आया ,नहीं  बुलाबा, ना आवाहन 
उमड़ पड़े  श्रद्धालु  विपुल , भोले  का करने आराधन  
वस्त्र गेरुआ, काँधे  कांबड़, बंधा कमर पटके का छोर  
हर हर बोले  बढा जा रहा  भक्तों का गुट सुरसरि ओर 

छवि का पनघट आज बना सैलाब  एक गंगा तट पर 
प्रेम भाव से  भक्त चढ़ाते  बेलपत्र जल वृषभकेतु पर 
था सावन का पुण्य मास, संपन्न हुआ जब सागर मंथन 
आशुतोष पी गए घटाघट, बिष से भरा कलश, हर्षित मन 

रुंध गया कंठ में भरा हलाहल दग्ध कर रही प्रवल ज्वाल 
जिसे  शमन करने को अब भी जलाभिषेक करते हर साल 
देवादिदेव  शिव  महादेव  भोले  भंडारी  बे  मिसाल  
जो पूजन करते श्रावण में, पाते अभीष्ट फल हो निहाल   

श्रीप्रकाश शुक्ल 

Thursday 5 July 2012


कसौटी पर कँचन की लीक है 

नैतिक मूल्यों का अवमूल्यन और प्रलोभन धन अर्जन का, 
जन मानस के मनस पटल पर दीमक जैसा पौढ़ रहा है 
छोटे-बड़े, पुरुष- महिला, शासक - प्रजा, सभी की रग  में, 
भृष्ट आचरण का विषाक्त बिष अविरल गति से दौड़ रहा है 

विधि विधान के कड़े नियम भी, रोक सके ना ये प्रवृत्ति,
जो शनै शनै बढ़ते बढ़ते, जीवन शैली का अंग होगयी 
सत्य अहिंसा के खम्भों  पर आधारित  भारत की छवि 
बिगड़ी हुयी सोच के कारण सारे जग में व्यर्थ खो गयी 

तिमिर कसौटी पर कंचन की  एक चमकती  लीक सरीखा ,
उत्प्रेरक  जन आन्दोलन ही  वांछित परिवर्तन लाएगा 
होगा अपत्रस्त  दुराचारी,  दुस्साहस  होगा  चूर चूर , 
भरा हुआ पापों का घट भी  निश्चय फूट बिखर जाएगा  

श्रीप्रकाश  शुक्ल 


Friday 15 June 2012

मुक्तिका ०५७  

दिल का प्यार समझना है, तो आँखों की चितवन देखो 
दर्द  मापना है दिल का, तो पलकों की छलकन देखो  
 
लाज भरी आकांक्षाओं को, शब्द नहीं बतला सकते  
 इन्हें परखना चाहो तो, पुतली की पुलकन देखो 
 
भाव ह्रदय के रुंधे कंठ से, अक्सर नहीं निकल पाते 
अगर इन्हें पढना हो, तो फिर होंठों की फडकन देखो
 
अनुवाद नयन की भाषा का, नहीं हुआ सम्भव अब तक,
क्या कहती रतनारी आँखें,  दिल की  धड़कन  छू  देखो 
 
बादे झूठे, रस्में झूठीं, दिखी सभी करतूतें झूठी ,
दुनिया में यदि रहना है, तो अपने मन की अड़चन देखो 
 
श्रीप्रकाश शुक्ल 


गुलमुहर  ने बाँह में भर 
गुलमुहर ने बाँह में भर, हँस,पथिक को यूं पुकारा  
 बैठो यहाँ विश्राम करलो, भूल जाओ क्षोभ सारा   
   झुलसा रहा है गर्म मौसम,लू तपिश भीषण घनी हैं  
       और बढती प्यास  से, इन्सान की साँसें तनी हैं 
क्यों व्यथित. सोचो तनिक और मन की गाँठ खोलो  
सुन रहा हूँ मैं, झिझक बिन, आज अपनी बात  बोलो   

यह  महल अट्टालिकाएं सामने  हंसतीं खडी जो  
  तेरे श्रम की  ही बदौलत  आज हैं  खुशहाल वो  
    क्या हुआ जो आज तेरे पास कोई घर नहीं  है 
      चैन से सोता तो है दिल  में कोई भी  डर नहीं है 
दूसरों  की  डगर में खुशियाँ हजारों जो  भरें  
भाग्यशाली कौन उन सा काम जो परहित करें  
देख तू मुझको, तपन से सारे पत्ते झर गए  
  पर रंग लाया स्वेद बहना फूल आँचल भर गए 
   भेजती है प्रकृति भी मुझको सदा ऐसे समय  जब 
     हैं दहकती आग से तपते  झुलसते जीव सब  
तुझको यहाँ भेजा गया, ऐसी नियति देकर धरा पर
संबल बनो असहाय का, हो परस्थिति जब भी दूभर  

श्रीप्रकाश शुक्ल 

Tuesday 5 June 2012

मुक्तिका 054
मैं  हूँ गायक अपने ढंग का, राग अनछुए गाता हूँ  
नैराश्य ओढ़ जो सोये हैं, उनको झकझोर जगाता हूँ 
 
निश्चय होगी धूप डगर में, झुलसेगा तन मन सारा 
जो ख़ुशी ख़ुशी तैयार, झेलने, साथ उन्हें ही ले जाता हूँ  
 
राहें कभी नहीं बदलेंगी, युग युग से जो चली गयीं
अपनी राह बदल  लो खुद से, मूल मंत्र  ये  बतलाता हूँ 
मन  में जो संदेह उग बढे, ले बैठे आकार ताड़ का , 
अपने  भी घर में अब  कोई,  मीत नहीं मैं  पाता हूँ 

महज़ ऊँचाई पा लेने से, मन को शांति नहीं मिलती,
शांति चाहिए? प्यार बाँट दो, यही रोज समझाता हूँ 

सादर 
श्रीप्रकाश शुक्ल