Wednesday 14 September 2011

मन तुम्हारी रीति क्या है


प्रवल निर्झर से समाहित , मन तुम्हारी रीति क्या है
अविछिन्न, अविरल, धार में, इंसान का सब कुछ बहा है
स्वच्छंद, चंचल, सतत प्यासे, भरते रहे वांछित उड़ाने
चिन्तक, मनीषी, विद्धजन, हो विवस, तुमसे हार माने


अनुभूतियों के जनक तुम, अनगिन तुम्हारी हैं दशाएं
फूल सी कोमल कभी तो, बन कभी पाषाण जाएँ
एक क्षण संगीत लहरी , मोद की सरिता बहाती
तो अगामी क्षण विषम हो, शून्यता सी समा जाती

है कठिन तुम पर नियंत्रण, मानते सब ही गुणी जन
पर खींच वल्गाएँ, सतत अभ्यास कर, थाम लेते अश्व मन
शांत मन यदि कर सकें तो, ज्ञान का हो अवतरण
ज्ञान के अंकुर उगें तो, सुगम, शुचि, जीवन भ्रमण



श्रीप्रकाश शुक्ल

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