Thursday 1 September 2011

कर्ण ! क्या तुमने था सोचा ?
शिक्षा का अधिकार मिलेगा, जैसे हुआ विधेयक पारित
खुल जायेंगे द्वार सभी जो, अब तक रहे अगम, प्रत्याशित
सहज कर सकोगे अर्जित तुम, मनचाही प्रतिभा, कौशलता
और साथ में खड़े पंक्ति में, तौल सकोगे अपनी क्षमता

पर भूल गए क्यों वो सामंती सोच अभी तक जीवित है
ऊंची उड़ान की बात करें क्या, महज कल्पना भी वर्जित है

कर्ण !क्या तुमने था सोचा
भुला सकेंगे लोग कि तुम जन्मे थे जहाँ, जगह थी निर्जन
धन विहीन , निन्दित ,निरीह , सेवारत था सारा वचपन
जन्म जाति को अनदेखा कर स्वीकारेंगे पौरुष बल पर
पहचान, जगह पा जाओगे, अधिकारी जिसके निशिवासर


पर भूल गए क्यों, वर्ण व्यबस्था, अब भी भर हुंकार रही
डस लेने को दीन दलित सब, सांपिन बन फुफकार रही

कर्ण !क्या तुमने था सोचा
चुने हुए जनता के प्रतिनिधि, अपना दायित्व निभायेंगे
शासन  प्रदत्त सुविधाएँ, समभाव सभी तक पंहुचायेगे
मन वचन कर्म से पालन होगा, संविधान संरचना का
भृष्टाचारी,दुष्ट, दुराचारी, कर न सकेंगे चाहा अपना

\पर भूल गया तू कर्ण, अभी भी वही शक्तियाँ सक्रिय हैं
छलबल से छीन सभी के हक, अपने ही हित जिनको प्रिय हैं

कर्ण ! क्या तुमने था सोचा
भौतिक अभ्युदय के साथ साथ, मानसिक मूल्य भी बदलेंगे
प्रगति समावेशी हो चहुँदिश , सब मिल नैया खे लेंगे
भाई भाई के लिए कोई , लाक्षा गृह नहीं बनाएगा
अभिरुचि, सिद्धांत अलग हों. पर आग नहीं भड़कायेगा

पर कर्ण अभी भी समय लगेगा, जब हो तेरी इच्छा पूरी
वैचारिक दूरियां भले ही हों, पर हों न दिलों में कोई दूरी


श्रीप्रकाश शुक्ल

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