Saturday 29 January 2011

शब्द नहीं बतला पाते हैं


भाव भरे कतिपय संवेदन, प्रिय के अंतर्मन से उठकर,
समरस हो, होते आच्छादित, अंतरिक्ष, भू, नभ  के ऊपर
और दूसरे छोर सुप्रिय की, उच्छवासों से जनित तरंगें ,
आत्मसात करतीं प्रयास बिन, मन में उठती सुखद उमंगें
इन लहरों में लेकर हिलोर , जो संदेशे आते हैं
                                        शब्द नहीं बतला पाते हैं

जब इन्द्रधनुष की शीतल किरणें, संतप्त कर रहीं हों बिरही मन,
दादुर की अनवरत पुकारें, गिरा रहीं हों संभला आँचल
युद्धभूमि से लौटा प्रियतम, पावस ऋतु की थकी सांझ को,
धीरे से आकर खटकाये बंद द्वार की बोझिल सांकल
इन ध्वनियों में घुलमिल कर, जो संदेशे आते हैं
                                       शब्द नहीं बतला पाते हैं

पलकों का गिरना, उठना ,या नटखट तिरछी चितवन,
या घूंघट में छुपे सुबकते, हों तरुणी के मृदुल अश्रुकन,
या फिर लेते विदा युगल का, पग पग पर रुकना मुड़ना,
या नन्ही अबोध बाला का, हाथ चिबुक रख, प्यार भेजना,
इन संकेतों में लुकछुपकर, जो संदेशे आते हैं
                                         शब्द नहीं बतला पाते हैं

श्रीप्रकाश शुक्ल