Sunday 1 August 2010

स्वत्व


क्यों खोते हम
मन की शांति
क्यों पालते
भय और भ्रांत,
दूसरो का
आंकलन,
नियंत्रण,
और
स्वत्व
ही होते
प्रमुख अभियुक्त
प्रतिक्रिया
स्वाभाविक है
लेकिन
क्यों न हम
सोच सकते
जैसा
वो सोचते हैं
क्यों न हम
अनुभव करते
जैसा वो
अनुभव करते हैं
और यह
स्वाभाविक ही


श्रीप्रकाश  शुक्ल 
बोस्टन  

1 comment:

  1. कविता:

    आत्मालाप:

    संजीव 'सलिल'
    *

    क्यों खोते?,
    क्या खोते?,
    औ' कब?
    कौन किसे बतलाये?
    मन की मात्र यही जिज्ञासा
    हम क्या थे संग लाये?
    आए खाली हाथ
    गँवाने को कुछ कभी नहीं था.
    पाने को थी सकल सृष्टि
    हम ही कुछ पचा न पाये.
    ऋषि-मुनि, वेद-पुराण,
    हमें सच बता-बताकर हारे
    कोई न अपना, नहीं पराया
    हम ही समझ न पाये.
    माया में भरमाये हैं हम
    वहम अहम् का पाले.
    इसीलिए तो होते हैं
    सारे गड़बड़ घोटाले.
    जाना खाली हाथ सभी को
    सभी जानते हैं सच.
    धन, भू, पद, यश चाहें नित नव
    कौन सका इनसे बच?
    जब, जो, जैसा जहाँ घटे
    हम साक्ष्य भाव से देखें.
    कर्ता कभी न खुद को मानें
    प्रभु को कर्ता लेखें.
    हम हैं मात्र निमित्त, वही है
    रचने-करनेवाला.
    जिससे जो चाहे करवा ले
    कोई न बचनेवाला.
    ठकुरसुहाती उसे न भाती
    लोभ, न लालच घेरे.
    भोग लगा खाते हम खुद ही
    मन से उसे न टेरें.
    कंकर-कंकर में वह है तो
    हम किससे टकराते?
    किसके दोष दिखाते हरदम?
    किससे हैं भय खाते?
    द्वैत मिटा, अद्वैत वर सकें
    तभी मिल सके दृष्टि.
    तिनका-तिनका अपना लागे
    अपनी ही सब सृष्टि.

    *******************


    Acharya Sanjiv Salil

    http://divyanarmada.blogspot.com

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