Monday 30 August 2010

अतिकृमण

प्रकृति जननि आँचल में अपने, भर हुए अनगिनत सुसाधन

चर अचर सभी जिन पर आश्रित, करते सुचारू जीवन यापन
बढ़ती आबादी ,अतिशय दोहन, उचित और अनुचित प्रयोग
साधन नित हो रहे संकुचित, दिन प्रतिदिन बढ़ता उपभोग

जर्जर काया, शक्ति हीन, माँ, साथ निभाएगी कब तक
दुख है, भाव, न , जाने क्यों यह, मन में आया अब तक

प्रकृति गोद में अब तक जो, पलते रहे हरित द्रुम दल
यान, वाहनों की फुफकारें, जला रहीं उनको प्रतिपल
असमय उनका निधन देख, तमतमा रहा माँ का चेहरा
ऋतुएं बदलीं, हिमगिरि पिघले, दैवी प्रकोप, आकर ठहरा

प्राकृत संरक्षण है अपरिहार्य, मानव जीवन सार्थक जब तक
दुख है, भाव, न, जाने क्यों यह, मन में आया अब तक

हम सचेत, उद्यमी, क्रियात्मक, आत्मसात सारा विश्लेषण
भूमण्डलीय ताप बढ़ने के कारण, मानव जन्य उपकरण
सामूहिक सद्भाव सहित, खोजेंगे हल उतम प्रगाड़
गतिविधियाँ वर्जित होंगी, परिमण्डल रखतीं जो बिगाड़

निश्चित उद्देश्य न पूरे हों , कटिबद्ध रहेंगे हम तब तक
दुख है, भाव, न, जाने क्यों यह, मन में आया अब तक

श्रीप्रकाश शुक्ल

नवगीत

जाने क्यों यह मन में आया अभी अभी तत्पर
क्या होता नवगीत, विधा क्या, क्या कुछ शोध हुयी इस पर
कौन जनक, उपजा किस युग में, कौन दे रहा इसको संबल
प्रश्न अनेकों मन में उपजे, सोया, जाग्रत हुआ मनोबल

कैसे यह परिभाषित, क्या क्या जुडी हुयी इस से आशाएं
हिंदी भाषा होगी समृद्ध , क्या विचक्षणों की ये तृष्णाएँ
शंका रहित प्रश्न यह लगते, सुनकर केवल मधुर नाम
पर नामों का औचित्य तभी , जब सुखद, मनोरम हो परिणाम


हिंदी साहित्य सदन में क्या ये, होंगे सुदीप्त दीपक बनकर
जिनकी आभा से आलोकित, सिहर उठे मानव अन्तः स्वर
कैसे टूटा मानस मन, पायेगा अभीष्ट साहस, शक्ति
बिना भाव संपूरित जब, होगी केवल रूखी अभिव्यक्ति

छोड़ रहा हूँ खुले प्रश्न ये, आज प्रबुद्धों के आगे
नवगीतों की रचना में, वांछित क्यों अनजाने धागे

श्रीप्रकाश शुक्ल
२८ अगस्त २०१०

कुछ हटकर

जाने क्यों यह मन में आया,
हम हैं, जिम्मेदार स्वयं,
अपने दुःख, अपनी आपत के.
खोज रहे हैं परम शांति,
हो बसीभूत,
भौतिक अनुरति के.
जो सुख आधारित हो,
अविवेक जनित
आह्लादों पर.
कैसे विजयी हो सकता है ,
विकृत, विशद विषादों पर.
यदि चाहो परम शांति तो,
कुछ हटकर करना होगा.
परहित ,परसेवा में ,
कुछ डटकर करना होगा.


श्रीप्रकाश शुक्ल
३० अगस्त २०१०

Tuesday 24 August 2010

आजका दिन है राखी का



आजका दिन है राखी का, याद भाई की आयी है
किसी ने हाथ रख सर पर, पीठ जो थप थपाई है

पता भी चल नहीं पाया, कि कब आया गया सावन
न गेरू से रंगे गमले, न गोबर से लिपा आँगन
न झालर द्वार पर लटकी, न घरुये पर सजा सारंग
न पूरा चौक आटे से, न पाटे पर बिछा आसन


राखी जो पत्र में भेजी, अभी तक मिल न पायी है
आजका दिन है राखी का याद भाई की आयी है
किसी ने हाथ रख सर पर, पीठ जो थप थपाई है


न झूले कहीं दिखते, लटकते नीम पीपल पर
न कोई गीत बन गूंजा, किसी बिटिया का नन्हा स्वर
नज़र आता नहीं भाई कोई , राखी बंधाने को
कि धागा बाँध, भाई बहिन का रिश्ता निभाने को

कर्णवती ने हल्दी लगा, भेजी थी चिठ्ठी, जो हुमायूं को
भटक सारे शहर में, आज फिर वो लौट आयी है
आजका दिन है राखी का याद भाई की आयी है

श्रीप्रकाश शुक्ल
२४ अगस्त २०१०

Friday 13 August 2010

मन में दृढ विश्वास लिए



राष्ट्र विभाजक अभिरुचियाँ, पनप रहीं हैं दिन प्रति दिन
जाति धर्म पर बट जाने के, परिलक्षित हो रहे शकुन
संकीर्ण विचारों में लथपथ हम, अपनी प्रज्ञा खोये हैं
सौहार्द्र प्रस्फुटित हो न सके, हम ऐसे बीज बोये हैं


हम अभिलाषी, हर भारतीय, जीवन गौरव पूर्ण जिए
सार्थक कदम उठाने होंगे, मन में दृढ विश्वास लिए


हमें भरोसा अपने बल पर, और सहिष्णु मानवता पर
शांति अहिंसा मंतव्यों पर, ज्ञानं कला की क्षमता पर
दिशा जगत को हम देंगे, बन विशाल, विकसित अजेय
समता और बंधुत्व बनेगा, सारे जग का एक ध्येय


आसुरी प्रबृत्तियों के विरुद्ध, जन जन जागृत, संगठित किये
निज देश सृजन हित होंगे तत्पर, मन में दृढ विश्वास लिए


श्रीप्रकाश शुक्ल
मिसिगन ( यू एस ए)
१३ अगस्त २०१०

Sunday 1 August 2010

प्रतिभाओं की कमी नहीं



विश्व भाल, चन्दन बिंदी सम, शोभित अपना सुन्दर देश
धर्म,वर्ण, वर्गीय विविधिता ,पाती जिसमें सम समावेश
विज्ञान,कला, साहित्य दक्षता, मिली हमें पैत्रिक धन में
प्रतिभाओं की कमी नहीं, किलक रही हर घर आंगन में

जन्मजात या फिर श्रम से, प्रतिभा चाहे समुचित निखार
गौरव,मान,स्तुति मिलकर, भरते कुशाग्रता, बल अपार
पांडित्य प्रखर भारत भू का, प्रतिभाओं की कमी नहीं
संतप्त हुआ जब भी समाज, बौछार ज्ञान की थमी नहीं


जब भी कहीं विश्व भर में, कष्टों के बादल छाते हैं
भारत के भावुक सरल हृदय, संवेदन से भर जाते है
प्रतिभापूर्ण प्रखर दिनकर, देदीप्य रश्मियाँ फैलाते हैं
निष्काम भाव से, निज हित तज, हम सदमार्ग दिखाते हैं

यह धरती जननी उस मेधा की,जिसमें निहित देश हित हो
जन कल्याण भावना प्रेरित,युग निर्माण बीज मिश्रित हो
वसुधैव कुटुम्बकम से बढ़कर , उक्ति कोई भी जमीं नहीं
जग हिताय सब कुछ अर्पण,यहाँ प्रतिभाओं की कमी नहीं


श्रीप्रकाश शुक्ल
२८ जुलाई २०१०
बोस्टन  

स्वत्व


क्यों खोते हम
मन की शांति
क्यों पालते
भय और भ्रांत,
दूसरो का
आंकलन,
नियंत्रण,
और
स्वत्व
ही होते
प्रमुख अभियुक्त
प्रतिक्रिया
स्वाभाविक है
लेकिन
क्यों न हम
सोच सकते
जैसा
वो सोचते हैं
क्यों न हम
अनुभव करते
जैसा वो
अनुभव करते हैं
और यह
स्वाभाविक ही


श्रीप्रकाश  शुक्ल 
बोस्टन