Wednesday 21 July 2010

मान्यवर, एक रचनाकार को किन किन परिस्थितियों से गुजरना पड़ता है विचारों की स्वतंत्र अभिव्यक्ति के लिए क्या क्या सुनना पड़ता है और क्या मनोदशा होती है यहाँ चित्रण करने का प्रयास I कृपया प्रतिक्रिया अवश्य दें




सृजन यज्ञ


हे कवि हे सृजनकार,
जो मूल्य संजोये शिष्टि में
उनको कर परिलक्षित तूं ,
अपनी करुनामय दृष्टि में
दुर्भाव, धृष्टता भरे समीक्षण
अनगिन अवरोधन लायेंगे
मित्रों के ईर्षा भरे अनुसरण,
दर्दीला बिष फैलायेंगे
नीलकंठ बन यह सब तुमको,
शांत भाव पी लेना है
आलोचक के प्रत्योत्तर में,
होंठों को सी लेना है
यदि मार्ग चुना है रचना का,
तो फिर जी, कृतित्व के बल पर
अपनी प्रतिभा से हो प्रदीप्त,
अपने कौशल को उन्नत कर
कुत्सित, कटु, कटाक्ष ठुकरा,
सुजन-यज्ञ में समिधा जोड़
दुष्टों के गर्हित शब्द भुला,
मत भाग, सृजन मैदान छोड़


श्रीप्रकाश शुक्ल

Wednesday 14 July 2010

सैनिक और कवि




हे सैनिक,जन्म जात तूं,
सार्थक मूल्यों में गढा गया
देश, धर्म संरक्षण को,
दृढ़ता से उनमें जड़ा गया

सम्भव नहीं भुलाना उनको,
आत्मसात हो, पैठे गहरे
नहीं समझ पायेगा तूं,
छुपे मुखौटे ,नकली चहरे

सीमा से हटकर रहने में,
अनगिन अवरोधन आयेंगे
विद्वेष, ईर्षा भरे भाव,
दुर्द्धर बिष फैलायेंगे

नीलकंठ बन यह सब तुमको,
हंस हंस कर पी लेना है
धैर्य असीमित संचित कर,
निज होंठों को सी लेना है

यदि मार्ग चुना है रचना का,
तो फिर जी, कृतित्व के बल पर
अपनी प्रतिभा से हो प्रदीप्त,
अपने कौशल को उन्नत कर

कुत्सित, कटु, कटाक्ष ठुकरा,
सुजन-यज्ञ में समिधा जोड़
दुष्टों के गर्हित शब्द भुला,
मत भाग, सृजन मैदान छोड़



श्रीप्रकाश शुक्ल
१४ जून २०१०









आप के साथ हैं हम


जब पराये देश,
घर से दूर,
किसी शाम
मन होता है उदास
और कोई अपना नहीं होता आस पास
कुरेदने लगता है शीतल समीर
दिल हो जाता है और भी अधीर
उमड़ते, घुमड़ते मेघों की टोली
आ बैठती है आँखों की कोरों पर
और सहसा झरने लगती है अश्रु धार
तब लगता है कि कोई अपना
याद कर रहा है,
शब्दों के पार हैं भाव , भावों के पार है आत्मन
आत्मन की पहुँच है अनंत
तभी तो आप सभी के साथ हैं हम चिरंतन और अनंतर
बात बस इतनी सी थी


मैं चकित, हैरान हूँ, इस अंध मोहासक्ति से
सौंदर्य के प्रति तुम्हारी, दुर्विजित आसक्ति से
यह देह तो नश्वर, अचिर, हर व्यक्ति का परिधान है
इसमें रमाना मन, ह्रदय को, सर्वथा अज्ञान है
यदि लगाते लगन इतनी, ईश से, जगदीश से
भ्रान्ति, भय मिटते ह्रदय के, दिव्य शक्ति आशीष से
बात बस इतनी सी थी, पर ह्रदय में घर कर गयी
शूल सी चुभती हुयी, विक्षोभ मन में भर गयी
छोड़कर घर द्वार सारा ,मार्ग पकड़ा भक्ति का
प्रभु राम की गाथा गढ़ी, कौशल चरम अभिव्यक्ति का
और भी कृतियाँ रची, आनंद स्रोत जो बनी
भावपूरित,रस समाहित, नव, विमल निर्झर घनी
सर्वथा अभिभूत जन मन, राम भक्त शिरोमणि
शत शत नमन है हुलसिनन्दन, सुकवि कुल चूड़ामणि


श्रीप्रकाश शुक्ल
१२ जुलाई २०१०
शिकागो






बात बस इतनी सी थी

आपको खाना बनाना आता है क्या?
नहीं, और आपको ?
मुझे ? मैं ?
बात बस इतनी सी थी
रास्ते बदलने की आपसी सहमति थी

बहू कहाँ जा रही हो ?
कब तक आओगी ?
अरे तुमने माँ को बताया क्यों नहीं ?
बात बस इतनी सी थी
रास्ते बदलने की आपसी सहमति थी

अरे घर तो ठीक नहीं है
हर जगह कबाड़ फैला है
तो करते क्यों नहीं ?
बात बस इतनी सी थी
रास्ते बदलने की आपसी सहमति थी

श्रीप्रकाश शुक्ल
१२ जुलाई २०१०
शिकागो