Sunday 13 June 2010

एक दिन सरिता विहार डिस्ट्रिक्ट पार्क में बैठा सोच रहा था कि  उम्र के हिसाब से जीवन के विभिन्न पहलुओं पर स्वयं के विचार भी कैसे स्वतः ही परिवर्तित हो जाते हैं. कुछ मुक्तक बने जो कि यहाँ रख रहा हूँ :-

बेतार के तार

समय, दूरियाँ धूमिल करती माधुर्यमयी,अनुपम यादें
बीच भंवर में गोते खातीं दर्द भरी, दिल की फरयादें
फिर भी यह प्रामाणिक है, यदि हों सच्चे भाव ह्रदय से
बिना तार के पहुंचा करते तत्क्षण, प्रिय तक सदा समय से

अमिट प्यास
जीवन भर रसरंग पागे, टूट गए जस कच्चे धागे
पान करो तिरछे नैनों का, फिर प्यासे कुछ क्षण आगे
रूप रंग के मधुमय प्याले, कभी न प्यास मिटायें
जितना ही तुम पीते जाओ, उतनी प्यास बढाएं

सौन्दर्य पूजन
जो समक्ष है प्रत्यक्ष है, वो दिखावा है
किसी तूफानी ज्वालामुखी का लावा है
फूट पड़ते ही, विध्वंस कर डालेगा
सो संजोया है अब तक, समूल खालेगा
पूजना है तो निरंकार पूजो
जी भर दुलारो, जी भर के जूझो

वानप्रस्थी
विचक्षणों का सहज मंतव्य,
हर व्यक्ति स्थिति प्रज्ञ हो
वाह्य स्पर्श जनित सुख अनासक्त,
निर्मोही,निर्लिप्त, साधुभाव सर्वज्ञ हो
हानि लाभ ,सुख दुःख, मान अपमान ,
मानव जीवन का नित्य द्वंद है
इनसे विमुक्त हो आत्म संतुष्टि कर
प्रभु स्मरण ही सच्चा आनंद है


श्रीप्रकाश शुक्ल
२१ अक्टूबर २००९
दिल्ली

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