Wednesday 9 June 2010

कुछ दिनों पहिले मन उदास सा था .अनेकों उलझनों के बीच कुछ एक क्षण ही ऐसे मिले जब मन को थोड़ी बहुत शांति मिली । लगा इन परिस्थितियों में शांति की कल्पना एक स्वप्न ही है और यह नई अनुभूति इन शब्दों में बिखर गई

शांति चाहिए ?

आज कहा ढल रही सांझ ने, सुन हारे, दुखियारे पंथी
इस पल भर प्रभात में तुम क्या, दूंढ़ रहे हो शांति किरण ?
किलक रही जो जीवन कलिका, कुम्हलायेगी पलक झपकते
सुखद क्षणों के कुंज उजड़,, विखरेंगे प्राण हीन कण कण

कोमल नवल सुखद अंचल में, छुपे यहाँ छलिया छलाव
भरते उर में प्रसूत पीड़ा, बेकार लगे सुख की अभिलाषा
भरी रहे बदली पलकों में, रातें रोती रहें सदा ही
शांति कल्पना लगे अभागी, प्यासी तडपे विकल पिपासा

यहाँ यथार्थ कर्कश कठोर, बेबस करती मांग नियति की
और नयन से निर्झर बहती, विकल कहानी हर मन की
व्यर्थ ढूँढना करुण द्रष्टि, आतुर पुकार लौटे न यहाँ
झकझोर रही लाचार जिन्दगी, ,टीस भरे दुखिया मन की

हारी बाज़ी, टूटी उमंग, सिमट गया सागर धीरज का
युग युग से प्यासे प्राण लिए, बेसुध फिरता मछली सा मन
ममता के सूखे स्त्रोत यहाँ, बेकल आशाएं चूर हुयीं
जलधि ज्वार सी लिए कामना, ढूंढें व्यर्थ शांति जीवन





श्रीप्रकाश शुकल
१० मई २०१०
 लन्दन

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